'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की बीसवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…
(बीसवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
‘‘आप कर्ण की तपस्या के बारे में बता रहे थे न दादाजी।’’ विकास ने याद दिलाया।
‘‘हाँ। कहते हैं कि कर्ण के शरीर पर जन्म से ही एक दिव्य ‘कवच’ था और उसके दोनों कानों में भी दिव्य ‘कुण्डल’ जन्म से ही थे। उसकी तपस्या से प्रसन्न
होकर इसी क्षेत्र में सूर्यदेव ने उसे कभी भी खाली न होने वाला एक तरकश यानी ‘अक्षय तूणीर’ भी उसे दिया था। इन तीन चीजों का स्वामी
होने के कारण वह अपने समय का अजेय योद्धा था। इसके बावजूद भी वह दानप्रिय व्यक्ति
था। कहते हैं कि कर्ण के दरवाजे से कोई भी याचक कभी खाली हाथ वापिस नहीं गया। उसके
इसी गुण का लाभ भगवान् कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय उठाया था। उन्होंने एक दिन
याचक के वेश में इन्द्र को उस समय कर्ण के सामने भेज दिया जब वह गंगानदी में खड़ा
होकर संध्या–उपासना
कर रहा था। इन्द्र ने दान में उससे उसके कवच और कुण्डल माँग लिए। ऐसी अद्भुत माँग
सुनकर कर्ण समझ गया कि इस समय कोई साधारण याचक नहीं, स्वयं इन्द्र उसके सामने खड़े हैं। उसने
कहा—भगवन्, मैं जान गया हूँ कि आप साधारण याचक के
वेश में स्वयं देवराज इन्द्र हैं और अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए
मेरे शरीर से कवच और कुण्डल उतरवाने के उद्देश्य से यहाँ आए हैं। फिर भी, मैं आपको निराश नहीं करूँगा। यों कहकर
उसने अपने जन्मजात कवच और कुण्डल उतारकर इन्द्र को दान कर दिए। ऐसे महादानी कर्ण
का मन्दिर, कर्णशाला और
कर्णकुण्ड अभी भी पिंडर नदी के किनारे पर कर्णप्रयाग में स्थित हैं।’’
‘‘सारे महापुरुष इसी इलाके में तपस्या क्यों करते थे दादाजी?’’
‘‘सारा हिमालय क्षेत्र तपस्वियों और संन्यासियों का क्षेत्र रहा
है। यह क्षेत्र भी हिमालय की ही पर्वत–श्रृंखला है। देवता तक यहाँ विचरण के लिए आते हैं। इसी कारण
इसे देवभूमि और स्वर्गभूमि भी कहा जाता है।’’
‘‘कर्णप्रयाग में देखने–सुनने लायक और क्या–क्या है?’’ मणिका
ने पूछा।
‘‘बहुत–कुछ
है…लेकिन कर्णप्रयाग का सबसे बड़ा महत्व यह है कि यहाँ केवल नदियों का नहीं,
रास्तों का भी संगम होता है। कुमाऊँ के
जिलों यानी अल्मोड़ा, रानीखेत,
हल्द्वानी और नैनीताल आदि को गढ़वाल से
जोड़ने वाला यह प्रमुख स्थान है। यहीं से हम नन्दादेवीधाम, आदिबदरी और रूपकुण्ड जैसी विश्वप्रसिद्ध
जगहों के लिए भी जा सकते हैं।’’
‘‘रूपकुण्ड में क्या है दादाजी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘प्राकृतिक सुषमा से प्रेम करने वालों के लिए रूपकुण्ड विशेष
आकर्षण की जगह है। सागरतल से उसकी ऊँचाई करीब पन्द्रह हजार फुट है और गहराई!…उसका
तो आज तक पता ही नहीं है। प्रकृति के प्रेमी वहाँ पहुँचकर अपना–आपा भूलकर उसी जगह के हो जाते हैं।
संसारभर में ऐसे मनभावन स्थान गिने–चुने
ही हैं। उसके पास ही बर्फ की एक नदी बहती है। चारों तरफ बर्फ से ढँकी ऊँची चोटियाँ
हैं। एक तरफ त्रिशूली यानी तीन चोटियोंवाला पूरे वर्ष बर्फ से ढँका रहनेवाला
पर्वत। उसकी गिनती हिमालय की ऊँची चोटियों वाले अनेक पर्वतों में होती है। अगर सही
कहा जाय तो उस त्रिशूल पर्वत के नीचे ही रूपकुण्ड स्थित है। त्रिशूल से निकलने
वाली जलधारा ‘नन्दाकिनी’
नदी के नाम से जानी जाती है।
कर्णप्रयाग बातों–बातों में पीछे छूट गया था। टैक्सी को हालाँकि कुछ खरीदने के
लिए अल्ताफ ने वहाँ थोड़ी देर के लिए रोका भी था। लेकिन बाहर के खुशनुमा दृश्यों और
दादाजी द्वारा सुनाई जा रही रोचक व ज्ञानवर्द्धक कथाओं में बच्चे कुछ इस कदर
तल्लीन थे कि कौन–सी
जगह कब पीछे छूट गई, उन्हें
कुछ पता ही नहीं चल रहा था।
लम्बी और महत्वपूर्ण यात्राओं में एक आदमी अगर सम्बन्धित
स्थानों की जानकारी देनेवाला साथ में हो तो यात्रा का आनन्द असीम हो जाता है।
यात्रा की इस जरूरत से ही शायद गाइडों का चलन शुरू हुआ होगा।
‘‘आप तो चुप बैठ गए दादाजी।’’ अल्ताफ ने जब टैक्सी को एक जगह अचानक
ब्रेक लगाए तो उससे उत्पन्न झटके से ध्यान भंग होने पर निक्की ने कहा।
‘‘आप लोग भी तो चुप थे!’’ दादाजी मुस्कराए।
‘‘तो क्या हुआ, आप
बताते रहिए न!’’ मणिका
बोली।
‘‘यह खूब रही! आप सब तो बाहर प्रकृति का मज़ा लेते रहें और मैं
कुछ न देखँ!…बकझक किए जाऊँ!!’’
‘‘अपने बच्चों को ज्ञान की बातें बताने को ‘बकझक’ कैसे कह सकते हैं आप?’’ मणिका ने निक्की का पक्ष लेते हुए
दादाजी को टोका।
‘‘अच्छा बाबा, ठीक
है।’’ उसके इस तर्क के आगे
हार ही गए दादाजी,‘‘सुनो,
अब हमारी टैक्सी नन्दप्रयाग पहुँचेगी।’’
‘‘इसको भगवान कृष्ण के नन्दबाबा ने बसाया होगा।’’ निक्की तुरन्त बोला,‘‘या फिर यहाँ पर उन्होंने तपस्या की
होगी।’’
‘‘नहीं।’’ दादाजी
मुस्कराकर बोले,‘‘तुक्का
हर जगह फिट बैठ जाए, जरूरी
नहीं है। पीछे मैंने त्रिशूल पर्वत और रूपकुण्ड की बात बताई थी।’’
‘‘जी दादाजी।’’
‘‘त्रिशूल से निकलने वाली नन्दाकिनी नदी के बारे में भी बताया
था।’’
‘‘जी।’’
‘‘उस नन्दाकिनी और अलकनन्दा के संगम पर ही यह नन्दप्रयाग बसा है।’’
‘‘दीदी,’’ अचानक
निक्की चिल्लाया,‘‘उधर…वहाँ
देख—पीला पहाड़!’’
‘‘अरे वाह!!’’ पीला
पहाड़ देखकर मणिका पुलकित स्वर में चीख–सी उठी।
‘‘ऐसे बहुत–से
पहाड़ तुमको आगे भी नजर आएँगे।’’ दादाजी
बताने लगे,‘‘दरअसल
घास के साथ ही किसी–किसी
पहाड़ पर एकाध पौधा गेंदा का भी उग आता है। कच्चे फूलों को तोड़ने के लिए कोई चढ़ता
तो है नहीं पहाड़ पर। इसलिए पक जाने पर उनकी पंखुड़ियाँ वहीं पर झर जाती हैं और
अनुकूल मौसम आने पर अंकुरित होकर अनेक पौधे बन जाती हैं जिन पर पहले की तुलना में
कई गुना फूल खिलते हैं । इस तरह खिलते, पकते, झरते
और अंकुरित होकर बढ़ते–बढ़ते
दो–तीन सालों में फूलों
के ये पौधे पूरी पहाड़ी पर छा जाते हैं। यह सामने वाला पहाड़ भी गैंदे के फूलों से
लदा–फदा है।’’
दादाजी के मुख से यह तर्कपूर्ण रहस्योद्घाटन सुनकर बच्चों के
साथ–साथ ममता और सुधाकर
भी उत्सुकतापूर्वक अन्य ऐसी पहाड़ियाँ तलाशने को निगाहें चारों ओर घुमाने लगे।
नन्दप्रयाग अब आने ही वाला था।
‘‘नन्दप्रयाग के निकट ही दसौली गाँव पड़ता है।’’ दादाजी ने आगे बताया,‘‘कहते हैं कि लंका के राजा रावण ने इसी
जगह पर शंकर भगवान को प्रसन्न करके दस सिर पाए थे। बस, तभी से इस जगह का नाम दसौली पड़ गया।’’
बातें करते, पहाड़ों
की नैसर्गिक सुन्दरता का आनन्द लेते वे नन्दप्रयाग पहुँच गए। टैक्सी को एक ओर
रुकवाकर सुधाकर ने ठण्डे पानी की बोतलें खरीदीं क्योंकि उनके पास जो पानी था वह
काफी गर्म हो गया था। थोड़ा–बहुत
बच्चों को भी इधर–उधर
घुमाकर उन्होंने टैक्सी को आगे बढ़वाया।
‘‘नन्दप्रयाग के बाद अब चमोली आएगा।’’ दादाजी खुद ही बताने लगे,‘‘जिस तरह हम रुद्रप्रयाग से गौरीकुण्ड के
रास्ते केदारनाथ को जा सकते हैं, उसी
तरह चमोली भी केदारनाथ और बदरीनाथ को जाने वाले रास्तों का संगम है। चमोली से
गोपेश्वर, ऊखीमठ आदि के रास्ते
हम केदारनाथ पहुँच सकते हैं और पीपलकोटी–जोशीमठ आदि के रास्ते से बदरीनाथ जाते हैं।’’
आगामी अंक में जारी…
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