ऐसे ही बैठे थे दोनों, कि हरीश ने कहा, “आज कोई बड़ी लघुकथा सुना यार। मन बहुत उदास है।”
उसकी बात सुनकर एक पल तो ललित सोचता रह गया—क्या सुनाऊँ ! लघुकथा भी कह रहा है और बड़ी भी! फिर एकाएक ध्यान आया और बोला, “सुन…”
“हूँ…” दोनों हथेलियाँ पीछे घास
में टिकाकर बैठे हरीश ने सिर को पीछे गिरा लिया और एकाग्र मुद्रा में आँखें मूँद
ली।
“ए रफीक भाई! सुनो... ” ललित ने
लघुकथा सुनानी शुरू की, “उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर
पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही—एक लाजा है, वो बो.ऽ.ऽ.त गलीब है।”
“वाह…वाह-वा… वाह-वा !” हरीश उछल
पड़ा। ललित उसका मुँह ताकता-सा बैठा रह गया।
“यह तूने वाकई बहुत बड़ी लघुकथा
आज सुनाई।” हरीश बोला, “दिल खुश कर दिया। किसकी है?”
“हद है यार!” ललित ने आश्चर्य
व्यक्त किया, “मैं तो सोच रहा था कि…”
“क्या सोच रहा था?”
“यही कि…”
“भाई, इस रचना को बड़ी बनाने वाले
एक नहीं, अनेक पद हैं।” उसके आश्चर्य को नजरअन्दाज कर हरीश ने बोलना शुरू किया, “पहला—‘ए
रफीक भाई! सुनो…’ लगता है जैसे एक मजदूर दूसरे से सम्बोधित है। कौम का, बिरादरी
का; ऊँच का, नीच का; अमीरी का, गरीबी का; दोनों के बीच कोई फासला है ही नहीं। दिली
रिश्ते…नजदीकी भाईचारे वाला सम्बोधन। दूसरा—‘उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की
खुमारी…’ यह जो ‘मैं’ नाम का पात्र है, इसके उत्पादन के तीन स्तर हो सकते हैं—पहला
यह कि बन्दा उद्योगपति हो, इण्डस्ट्रियलिस्ट हो। फैक्ट्री उम्मीद से ज्यादा माल
उगल रही हो। ऐसे में नींद किसे आती है और थकान किसे होती है! बस, खुमारी ही होती है। दूसरा यह कि वह किसान हो,
ठेठ किसान…देसी। फसल बहुत अच्छी, सालों-साल के सपने पूरे करने वाली हुई हो, खलिहान
लबालब हो बाहर को छलकने लगा हो। …और एक तीसरा पक्ष भी हो सकता है कि…लेखक का नाम
तो बता!”
“तीसरा पक्ष क्या हो सकता है?”
“यह कि बन्दा राजनेता हो…आजाद
भारत में पैदा हुआ, पला-बढ़ा राजनेता। इलाके में अपने पक्ष में लहराने वाले झण्डों
और जुलूसों, दीवारों पर चिपके पोस्टरों से उसकी तबीयत चकाचक हो…! उसका तो वही
उत्पादन है…और उससे मिली खुशी ही खुमारी।”
“फिर उसकी बेटी ने यह क्यों कहा
कि—वो बो.ऽ.ऽ.त गलीब है।”
“ठीक ही कहा। इस देश का पूँजीपति
कितना गरीब है, नहीं जानते हो? सरकार भी उसके कटोरे में जब-तब अरब-खरब डालती ही
रहती है। वह इतना गरीब है कि बस और रेल में बेचारा चल ही सकता। शक्की और इतना है
कि सवारी के लिए हवाई जहाज भी उसे अपना ही चाहिए। चैन की नींद उसे लन्दन या दुबई के अपने पाँच सितारा फ्लैट में
ही आती है। यहाँ के एसी उसे दमघोंटू लगते हैं।…नाम नहीं बताया!”
“किसान?’’ ललित ने
पूछा।
“वह गरीब, देश को भरपूर फसल और
सीमा को जवान बेटे, दोनों देता है; और
बदले में क्या पाता है? तारीफ के तौर पर सालभर में लाल किले की प्राचीर से अपने
नाम का एक नारा। बाकी 364 दिन जलालत और आत्महत्या। ये कहते हैं कि आज़ादी से लेकर अब
तक सिर्फ साढ़े तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है, सवा सौ करोड़ की आबादी में इतने
लोग क्या माने रखते हैं?”
“और वो जो राजनेता वाली बात कह
रहा था?”
“गरीबी का लम्पट रूप है वो।
गरीबों को भावनात्मक रूप से लूटने और लूटते रहने वाले कपटी…”
“गिद्ध!”
“नहीं।” हरीश क्रोधित स्वर में
बोला, “गिद्ध तो मरे जानवर को खाता है, ये साले जिन्दा आदमी को चबा रहे हैं!
बेशर्म और कृतघ्न इनके चारित्रिक गुणगान के लिए बहुत छोटे शब्द हैं। तूने वाकई बड़ी…बहुत
बड़ी लघुकथा सुनाई।”
“मै तो सोच रहा था कि तू वैसे
बड़ी लघुकथा सुनने की गुजारिश कर रहा है…” ललित बोला, “सिर्फ 31 शब्दों की रचना
सुनकर नाराज होगा मुझ पर।”
“नाराज तो होऊँगा बेटा, ” हरीश
सीधा बैठकर हाथ झाड़ता हुआ बोला, “अगर तूने इस बार लेखक का नाम नहीं बताया तो थोबड़ा
तोड़ डालूँगा।”
“रमेश बतरा।” ललित ने कहा और भावावेशवश उमड़ आए आँसुओं को रोकने की कोशिश करता-सा आँखें मूँद, कंठ को अवरुद्ध कर बैठ गया। (प्रकाशित : पाखी, दिसम्बर 2016)
सम्पर्क
: एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
ई-मेल : 2611ableram@gmail.com
3 टिप्पणियां:
वाह सर रमेश बतरा की लघुकथा को जो छौंक लगा वाकई गजब लगा
इस लघुकथा से बेहतर रमेश बतरा जी को श्रद्धांजलि क्या होगी ? एक श्रेष्ठ लघुकथाकार को एक समर्पित लघुकथाकार की लघुकथा के रूप में सच्ची स्मरणांजलि 🙏🙏🙏🌺
उम्दा सृजन । लाजवाब प्रस्तुति
एक टिप्पणी भेजें