“अच्छा, एक बात बताओ वेताल…” विक्रम ने चलते-चलते पूछा।
“क्या?”
“धमकीभरा सवाल पूछने की लत तुम्हें कब और कैसे लगी?”
“मैं और धमकी?” वेताल सोचने-सा लगा; कुछ देर सोचने के बाद बोला, “पहली बात तो यह कि तुमसे पहले मेरी बात किसी अन्य शख्स से कभी हुई ही नहीं! दूसरी यह कि तुम्हें भी धमकी तो मैंने कभी दी ही नहीं!!”
“भूल रहे हो कि…” विक्रम ने शिकायती-स्वर में कहा, “पहले ही दिन तुमने धमका दिया था कि--तुम्हारे सवाल का यदि जान-बूझकर जवाब नहीं दूँगा तो मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।”
यह सुनते ही वेताल जोर का ठहाका लगा उठा, “कोउ नृप होय, हमें का हानी--वाले निष्क्रिय बुद्धिजीवियों से यह देश अटा पड़ा है राजन्। साफ बोलने का अवसर आए तो मुँह में दही जमा बैठने में ही वे अपनी सुरक्षा और बड़प्पन देखते हैं। ऐसे लोगों का सिर टुकड़े-टुकड़े देखने की इच्छा में क्या बुराई है, बताइए?”
( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )
1 टिप्पणी:
एक उत्कृष्ट कथा!
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