शुक्रवार, मई 24, 2024

काम-काज, स्त्री और लघुकथा / बलराम अग्रवाल

बीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में हिन्दी कथा साहित्य मे स्त्री विमर्श बड़ी शिद्दत से छाया रहा। उस विमर्श की बात इस लेख में नहीं कर रहे हैं; बल्कि स्त्री जीवन की उस त्रासदी की बात कर रहे हैं जो लघुकथा लेखन से जुड़े अलग-अलग क्षेत्र के कथाकारों ने गहराई से महसूस की है। शायद कवि केदारनाथ सिंह की कविता है—

काम से छूटकर औरतें

काम पर

निकलती हैं।

सिर्फ आठ शब्दों में, वर्तमान स्त्री-जीवन की यह कड़वी सचाई है। औरत कामकाजी हो या घरेलू, वह काम पर ही रहती है। दूसरी तरह देखें तो कामकाजी औरत दोहरी जिम्मेदारी ढोती है। भारतीय संस्कार ही कुछ ऐसा है कि स्वयं औरत को भी अपनी पूर्णता घरेलू कामकाज में ही नजर आती है। वह अपने-आप को सौ प्रतिशत खटाती है, तिस पर भी उलाहना यह कि ‘स्त्री कुछ नहीं करती’! आइए, पढ़ते हैं इसी व्यंजक शीर्षक से लिखी, स्त्री-पीड़ा से पाठक की संवेदना को चीर-चीर देने वाली अशोक भाटिया की लघुकथा—

डॉ॰ अशोक भाटिया
वह सवेरे सबसे पहले पाँच बजे उठी, भैंस को चारा देकर जंगल-पानी गई, फिर आकर पति और सास-ससुर को चाय पिलाई, फिर भैंस को दुहने के बाद नहलाया, फिर उसका गोबर उठाकर उपले पाथने ले गई, फिर आकर आटा गूँथा, सब्जी-रोटी बनाई, फिर दोनों बच्चों को उठाया-नहलाया और खिला-पिलाकर स्कूल के लिए तैयार किया, फिर दही बिलोई, फिर सास-ससुर और पति को नाश्ता कराया, फिर सबके जूठे बर्तन साफ़ किए, फिर खुद नाश्ता किया, फिर भैंस को चारा दिया, फिर घर में झाड़ू-पोंछा लगाया, फिर कपड़े धोने चली गई, फिर नहाकर दोपहर की रोटी बनाई और खिलाई, फिर खेत में गुड़ाई करने गई, वापसी में भैंस के लिए सिर पर चारा लेकर आई, आकर खाना बनाया और बच्चों व सास-ससुर को खिलाया, फिर से बर्तन साफ़ किए, फिर सबको गर्म दूध पिलाया, बच्चों को सुलाया, फिर चौपाल में ताश खेलने के बाद शराब पीकर आ धमके डगमगाते पति को सँभाला, उसकी गालियाँ सुनीं, उसे खाना खिलाकर चैन की नींद सुलाया, फिर सन्नाटे में बचा-खुचा खाया और थकान के साथ सो गई...

फिर सबेरे सबसे पहले पाँच बजे उठी.....

अशोक भाटिया ने इसे चक्राकार शैली में लिखा है, कुंडली-छंद की तरह यानी लघुकथा का पहला वाक्य ही अन्तिम वाक्य भी है। इसके द्वारा उन्होंने संकेत किया है कि औरत के जीवन की विभीषिका में ‘विराम’ नहीं है, अनथक नैरन्तर्य है। स्त्री-जीवन में दैनन्दिन कार्य की इस विभीषक त्रासदी को  ‘काम क्या होता है’ सरीखे नुकीले, स्त्री की आत्मा को छेदते शीर्षक से सुदर्शन रत्नाकर ने यों चित्रित किया है—

सुदर्शन रत्नाकर
सुबह पाँच बजे अलार्म की टन टन आवाज के साथ ही उठ गई। नित्यकर्म से निवृत होकर वह किचन में गई। कुकर में दाल डालकर गैस पर रखी। आलू-गोभी की सब्जी को छौंक लगाया। दोनों चीजें बनाकर बच्चों के नाश्ते की तैयारी में जुट गई। साढ़े छह बज गए थे। पति उठ गए थे। चाय बनाकर कमरे में उनको दे आई।

खाना तैयार हो गया था। अपना और पति का लंच बॉक्स पैक किया। बच्चों के डिब्बों में उनके लिए स्नैक्स रखे। सात बज गए थे। दूध गर्म करने के लिए गैस पर रखकर वह बच्चों को जगाने गई। बड़ी तो उठ जाती है, छोटी उठने में आनाकानी करती है। उसे कई प्रलोभन देकर फिर डाँट-डपटकर जगाया। उन्हें बाथरूम में धकेलकर तथा उनकी यूनिफॉर्म रक्षा कर वह फिर किचन में आ गई। दूध उफनकर थोड़ा गिर गया था। उसने बनी हुई चाय गर्म की और चीजों को सम्भालते हुए टोस्ट के साथ पोने लगी। तभी डोरबेल बजी, दरवाजा खोलकर देखा, मेड का बेटा था। बोला, "आज मेरी मम्मी काम पर नहीं आएगी।" कहकर वह पीछे मुड़ गया। उसकी चाय का स्वाद बिगड़ गया।

दोनों बेटियों तैयार हो गई थीं। उनको नाश्ता करवाकर, बस स्टॉप पर छोड़ आई। पति तैयार हो गए थे। मेज पर उनका नाश्ता और लंच बॉक्स रखकर वह किचन में आकर सामान समेटने लगी। थोड़े बर्तन भी साफ कर लिए, मेड का फरमान जो आ गया था। झाडू पोचे की छुट्टी हो गई। पहले पता होता तो सुबह उठते ही कर लेती।

सारे काम निबटाकर वह तैयार होने के लिए कमरे में आ गई। सुबह समय बचाने के लिए वह अपने कपड़े रात को ही निकालकर रख लेती है। जल्दी-जल्दी साड़ी को बदन पर लपेटा। बालों में एकाध बार ब्रश घुमाकर बाँध लिया। आँखों में काजल लगाया। पाउडर और लिपस्टिक लगाने का समय तो उसे कभी मिला ही नहीं।

पति नाश्ता करके बाहर खड़े थे। उसे आता न देखकर बार-बार हॉर्न बजा रहे थे। शीघ्रता से पर्स उठाकर लंच बॉक्स उसमें डाला, ताला लगाया और बाहर आ गई। ऑफिस को देर हो रही थी, पति चिड़‌चिड़ाकर बोले, “काम क्या होता है, क्या करती रहती हो, तैयार होने में इतना समय लगा देती हो।”

उसने कोई उत्तर नहीं दिया। शरीर पर लिपटी साड़ी को सम्भालते हुए वह स्कूटर के पीछे बैठ गई।                             

कामकाज से सम्बन्धित आरोपों और आक्षेपों के प्रत्युत्तर औरत कोई सफाई नहीं देती, चुप रह जाती है। आरोप और आक्षेप उसके लिए निहायत बौने हो चुके हों जैसे। लेकिन पुरुष कथाकार का मन उसकी चुप्पी से आहत होता है। सब-कुछ करने वाली औरत पीड़ा से दग्ध वह मर्दों से कह उठता है—‘औरत को रोबोट मत बनाओ’। आइए पढ़ते हैं, वरिष्ठ लघुकथाकार कुँवर प्रेमिल की लघुकथा—

वह लड़की थी तभी से घर के छोटे-मोटे कामकाज उसके जिम्मे थे। छोटे भाई-बहनों को नहलाना-धुलाना, खाना खिलाना, रूठे हुए को चुप कराना और अपने हिस्से का बिस्कुट दूध अपने नन्हें मुन्ने भाई-बहन को हँसते-हँसते खिलाना फिर स्वयं बुक्का फाड़कर रोने लगना। अब वह औरत में तब्दील हो गई है तो अचानक उसकी जिम्मेवारियाँ दोगुनी-तीन गुनी क्या, कई गुनी तक बढ़ गई हैं। अब भाई-बहनों के बदले उसके स्वयं के बच्चे-बच्चियों आ गए। इतना ज्यादा कामकाज बढ़ा कि उसके लिए सुबह-शाम का अंतर ही समाप्त हो गया।

उसकी दिनचर्या कुछ इस किस्म की हो गई—अलस्सुबह उठकर घर के सदस्यों के लिए जलपान, चाय-कॉफी की व्यवस्था करना।

-रात के जूठे पड़े बर्तनों की साफ-सफाई करना।

-नमक-तेल-मिर्च, राशन की व्यवस्था करना।

-दिन-भर के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करना।

-आँगन में उड़ते पड़े अखबार को उठाकर पतिदेव के कर कमलों तक पहुँचाना।

-बच्चे, पति का टिफिन तैयार करना।

-घर के बजट का पूरा-पूरा हिसाब रखना, समय-समय पर ब्यौरेवार खर्च का लेखा-जोखा पतिदेव के सामने प्रस्तुत करना, उनकी शंकित निगाहों का सामना करना।

-दोपहर के भोजन की तैयारी, सबकी पसंद के अनुसार भोजन-सामग्री तैयार करना।

-स्कूल से लौटे बच्चों की धींगामुश्ती, उनके बीच सुलह, उनको किताब कॉपी, पेन-पेंसिलों का वितरण आपूर्ति करना, होमवर्क कराना। पिता द्वारा डाँटे जाने पर बच्चों को मनाना, चुप कराना, टॉफी-बिस्कुट देकर उनका मन बहलाना।

-सास-ससुर की सेवा-सुश्रूषा, पतिदेव के दफ्तर से लौटने पर फिर नई ऊर्जा के साथ उनका स्वागत, जबरन मुस्कुराने की कोशिश करना।

-‘दिन-भर करती क्या हो’ जैसे उलाहने सुनना।

-ताने सुनना, ‘मुटिया गई हो, कामकाज से जी चुराती हो, बच्चों पर ध्यान नहीं देती हो…’ जैसे आरोपों को हँसते-हँसते झेलना, भूल जाना।

-रात्रि के भोजन उपरांत शयन कक्ष की साफ-सफाई के साथ सबके बिस्तर लगाना और स्वयं सबके सोने के बाद ही अपनी शैया पर जा पाना।

-इस बीच कई बार अपनी किस्मत का रोना रो-रो कर अपनी थकान के सारे चिह्न मिटाने की असफल कोशिश करना, अंदर से रुदन-क्रंदन, ऊपर से मुस्कुराना।

यह कैसी औरत है जी, जो रात-दिन खटती है, चुप रहती है, अपनी खुद की दुख-तकलीफें भूलकर दूसरों के लिए जीती है।

-अय दुनिया वालो! औरत पर रहम करो, उसे थकने-चुकने मत दो। जिस दिन औरत थक जाएगी, आधी दुनिया थक जाएगी। अस्थिर हो जाएगी। समझदारी यह है—औरत को हाड़-मांस की औरत ही रहने दो। उसे रोबोट मत बनाओ। परिवार की सेहत के लिए औरत का औरत बने रहना ही जरूरी है।

कुँवर प्रेमिल ने अपनी इस लघुकथा में औरत द्वारा किये जाने वाले दैनन्दिन कार्यों को डायरीनुमा नोट्स की तरह बिंदुवार गिनाया है, उन्हें दृश्य में नहीं बदला, न संवाद ही बनाया। उन कार्यों को कथात्मक सौंदर्य प्रदान करते हुए दृश्य में बदला है कथाकार संतोष श्रीवास्तव ने अपनी लघुकथा ‘रोबोट’ में—  

संतोष श्रीवास्तव
अमेरिका के बोस्टन से लौटकर वह खाना खाते हुए पत्नी को बतला रहा था—

“पता है अमेरिका में अब रेस्तरां में रोबोट ग्राहकों का ऑर्डर भी लेंगे और परोसेंगे भी।”

पत्नी ने मटर-पनीर की सब्जी उसे परोसते हुए आश्चर्य से पूछा—“क्या वाकई!”

“हाँ, ये रोबोट्स पाँच बैटरियों से चलेंगे। इनकी कीमत 74 लाख है।”

“नीबू दो यार।”

“अभी लाई।” कहती हुई पत्नी किचन में गई और प्लेट में नींबू काटकर ले आई, साथ में गर्म फुलका भी।

पति ने सब्जी में नींबू निचोड़ते हुए कहा—“रोबोट से सेवा लेने के लिए ग्राहक को कंप्यूटर पर लॉग इन करवाया जाता है। तब उसके सामने एक कस्टमाइज्ड टेबल कुर्सी खुल जाती है। ग्राहक के उस कुर्सी पर बैठते ही रोबोट ऑर्डर लेता है, किचन तक पहुँचाता है और रोबोटिक सर्वर से उसका ऑर्डर टेबल पर ही सर्व हो जाता है।”

“वाह। जीना कितना आसान हो जाएगा।”

“मुझे तो यह वेस्ट ऑफ मनी लगा। मनुष्य मशीन हो गया। यार, पापड़ और हरी मिर्च भी लाओ न।”

पत्नी पापड़ सेंकने किचन की ओर जाने लगी।

पलटकर उसने पलकें झपकाईं।

इन चारों लघुकथाओं में अशोक भाटिया की स्त्री पात्र ठेठ ग्रामीण है, सुदर्शन रत्नाकर की स्त्री पात्र मध्यमवर्गीय शहरी और सम्भवत; कामकाजी महिला है; कुँवर प्रेमिल ने स्त्री की त्रासदी को उसके बचपन से  लेकर युवा और प्रौढ़ हो जाने तक उठाया है, उनकी स्त्री पात्र निहायत घरेलू  महिला है; सन्तोष श्रीवास्तव की स्त्री का पति बोस्टन से लौटकर आया है, इसलिए अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी स्त्री पात्र उच्च वर्गीय है। इन सबके केन्द्र में स्त्री की एक ही पीड़ा को उकेरा गया है—घर और बाहर के कामों में रात-दिन प्राण-पण से खटती रहने के बावजूद वह ‘थैंकलैस जॉब’ कर रही है। तात्पर्य यह कि आज का लघुकथाकार बहुत गहराई से समाज के क्रिया-कलापों और चरित्रों को देख-परख रहा है, अपने-अपने ढंग से उस पर अपनी आपत्तियाँ दर्ज कर रहा है।

(उपर्युक्त चार में से सुदर्शन रत्नाकर, संतोष श्रीवास्तव और कुँवर प्रेमिल की लघुकथाएँ कथाकार कमल कपूर (मोबाइल-9873967455) द्वारा सम्पादित लघुकथा संग्रह ‘तपती पगडंडियों के पथिक’ से उद्धृत हैं।)

सम्पर्क : 8826499115

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

नारी की रोज़मर्रा की ज़िंदगी की व्यथा-गाथा को उकेरता सुंदर आलेख । वह कितनी भी आसमान में उड़ ले , घर में खटने की नियति नहीं बदल पा रही। सोच और नज़रिया बदलने की आवश्यकता है। उदाहरणार्थ मेरी लघुकथा देने के लिए हार्दिक धन्यवाद।सुदर्शन रत्नाकर