मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

उम्मीद/बलराम अग्रवाल


जूनागढ़ निवासी मौहम्मद रफीक अपने रिक्शे में
रिक्शेवाले को पैसे चुकाकर मैंने ससुराल की देहरी पर पाँव रखा ही था कि रमा की मम्मी और
बाबूजी मेरी अगवानी के लिए सामनेवाले कमरे से निकलकर आँगन तक आ पहुँचे।
नमस्ते माँजी, नमस्ते बाबूजी! मैंने अभिवादन किया।
जीते रहो। बाबूजी ने मेरे अभिवादन पर अपना हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया। माँजी ने झपटकर मेरे हाथ से ब्रीफकेस ले लिया और उसी सामनेवाले कमरे के किसी कोने में उसे रख आईं।
मैं कहूँ थी नपन्द्रह पैसे की एक चिट्ठी पर ही दौड़े चले आवेंगे! ड्राइंग-रूम बना रखे उस दूसरे कमरे में हम पहुँचे ही थे कि वह बाबूजी के सामने आकर बोलीं,दुश्मन को भी भगवान ऐसा दामाद दे।
भले ही उसको कोई बेटी न दे। बाबूजी ने स्वभावानुसार ही चुटकी ली तो मैं भी मुस्कराए बिना न रह सका।
तुम्हें पाकर हम निपूते नहीं रहे बेटा। उनकी चुटकी से अप्रभावित वह भावुकतापूर्वक मेरी ओर घूमीं,चिट्ठी पाते ही चले आकर तुमने हमारी उम्मीद कायम रखने का उपकार किया है।
चिट्ठी पाते ही चले आने के उनके पुनर्कथन ने मुझे झकझोर-सा दिया। घर से मेरे चलने तक तो इनकी कोई चिट्ठी वहाँ पहुँची नहीं थी! मिट्टी के तेल की बिक्री का परमिट प्राप्त करने के लिए कुछ रकम मुझे सरकारी खजाने में बन्धक जमा करानी थी। समय की कमी के कारण रमा ने राय दी थी कि फिलहाल ये रुपए मैं बाबूजी से उधार ले आऊँ। अब, ऐसे माहौल में, इनकी किसी चिट्ठी के न पहुँचने और रुपयों के लिए आने के अपने उद्देश्य को तो जाहिर नहीं ही किया जा सकता था।
दरअसल, आप लोग कई दिनों से लगातार रमा के सपनों में आ रहे थे। मैं बोला, तभी से वह लगातार आप लोगों की खोज-खबर ले आने के लिए जिद कर रही थी। अब…। कहते हुए मैं बाबूजी से मुखातिब हो गया,…आप तो जानते ही हैं दुकानदारी का हाल। कल इत्तफाक से ऐसा हुआ कि मिट्टी… अनायास ही जिह्वा पर आ रहे अपने आने के उद्देश्य को थूक के साथ निगलते हुए मैंने कहा,सॉरी, चिट्ठी पहुँच गई आपकी। बस मैं चला आया।

10 टिप्‍पणियां:

दीपक 'मशाल' ने कहा…

आप जैसे लघुकथाकार मेरे लिए प्रेरणा के स्रोत रहे हैं.. यह भी कम शब्दों में एक असमंजस की स्थिति को ढंग से व्यक्त करती हुई लघुकथा रही.. सच है सबकी अपनी-अपनी परेशानियां हैं..

आदर्श राठौर ने कहा…

बहुत ख़ूब

सुनील गज्जाणी ने कहा…

balram jee
pranam !
sunder hai laghu katha ,
badhai
saadar

उमेश महादोषी ने कहा…

निसंदेह आपकी बेहतरीन लघुकथाओं में से एक है। पहले पढ़ी हुई भी है। पर लगता है अंत में कुछ परिवर्तन किया है।
पहली भी अच्छी थी, अब भी अच्छी है।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

सर्वश्री दीपक मशाल, आदर्श राठौर, सुनील गज्जाणी व उमेश महादोषी जी टिप्पणी हेतु आभार।
भाई महादोषी जी, रचना पूर्ववत् है, अपरिवर्तित।

सुभाष नीरव ने कहा…

इस लघुकथा का अन्त बहुत स्वाभाविक है। कभी कभी हम सोचकर क्या जाते हैं, पर अगले का प्यार-स्नेह देखकर मन की बात मन में ही दबाकर लोट आते हैं। खूबसूरत लघुकथा !

Aditya Agarwal ने कहा…

achchhi laghukatha. Happy Diwali.

कविता रावत ने कहा…

Bahut achhi lagi laghukatha... badhai

प्रदीप कांत ने कहा…

असमंजस की स्थिति में निर्णय आसान नहीं होता किंतु जिस तरह का आपने अंत में निर्णय लिया वह काबिले तारीफ है।

सीमा स्‍मृति ने कहा…

जीवन की वास्‍तिवकता पर क्‍या खरी उम्‍मीद ।आपकी हर लधुकथा पर आप का बधाई ।