सोमवार, अगस्त 15, 2011

सेर को सवा सेर/बलराम अग्रवाल

दोस्तो, लम्बे समय बाद 'कथायात्रा' पर आना हो पाया है। अपनी व्यस्तताओं का विलाप 'अपना दौर' में कर चुका हूँ। इस बार 'कथायात्रा' में लघुकथा की बजाय बाल-एकांकी 'सेर को सवा सेर' लगा रहा हूँ। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।--बलराम अग्रवाल
बाल-एकांकी


                                                                                                     चित्र : बलराम अग्रवाल
पात्र
चायवाला
चौबे जी
अजनबी
चाय की दुकान, जिस पर पंडित जी चाय वाले का बैनर लटका हुआ है। चायवाला चाय बना रहा है। चौबे जी एक बैंच पर बैठा चाय बनकर आने का इंतजार कर रहा है।

चौबे जीभाई, तू चाय बना रहा है या बीरबल की खिचड़ी? एक घंटा हो गया उबालते-उबालते।
चायवालाजल्दी वाली चाय अगले चौराहे पर मिलेगी चौबे जी।
चौबे जीइतनी देर वाली भी तो नहीं मिलनी चाहिए।
चायवालाभाईसाहब, मैं केवल चाय-पत्ती नहीं उबालता पानी में। तुलसी के पत्ते, कुटी हुई अदरक और हरी इलायची भी डालता हूँ। ये सब जब तक अच्छी तरह ना उबल जायें, इनका असर कैसे आयेगा चाय में।
चौबे जी अब बात ना बना, जल्दी दे।
चायवाला छलनी एक कप के ऊपर रखकर चाय छानता है और  चौबे जी के हाथ में थमा देता है।

चौबे जीअच्छा एक बात बतातूने दुकान पर पंडित जी चाय वाले क्यों लिखवाया है?
चायवालावो इसलिए कि अनपढ़ों का इलाका है। इसे पढ़कर कम पढ़ा-लिखा आदमी भी आसानी से यह समझ सकता है कि यह दुकान चाय की है।
चौबे जीनहीं, मेरा इशारा पंडित जी लिखवाने की तरफ है, चाय वाले लिखवाने की तरफ नहीं।
चायवालाभैया चौबे जी, असल बात तो ये है कि खोखा जिससे खरीदा था यह उसी ने लिखवाया हुआ था। हमने उतारने या बदलने की जरूरत नहीं समझी।
चौबे जीवही तो मैं सोचूँ था कि तू ठाकुर आदमी पंडित कब से हो गया?
चायवालाभई, बिजनेस जिससे ठीक चले वो सब काम ठीक है। पंडित जी लिखा देखकर ऊँची जाति वाले भी बिना संकोच के यहाँ आ जाते हैं।
चौबे जीऔर नीची जात वाले?
चायवालादेखो भैया, धन्धा करने बैठे हैं तो वापस तो किसी को जाने नहीं देना है।
चौबे जीयह भी ठीक है।
                                                                                                 चित्र:आदित्य अग्रवाल
इतने में गन्दे-से कपड़े पहने टहलता हुआ-सा एक अजनबी दुकान पर आता है और नि:संकोच चौबे जी वाली बैंच पर उसके निकट आ बैठता है। चौबे जी उसकी तरफ देखकर नाक सिकोड़ता है और बैंच पर उससे अलग खिसक जाता है।
चायवालाक्या चाहिए?
अजनबीएक किलो चावल दे दो।
चायवालादुकान के ऊपर ये बैनर दीख रहा है?
अजनबी दीख तो रहा है। पर उसमें चावल नहीं लटक रहे।
चायवालाएक बार फिर ध्यान से देख।
अजनबीजो आदमी ध्यान से बैनर नहीं देखेगा, उसे चावल नहीं दोगे क्या?
चायवालाउस पर पढ़ भी ले, क्या लिखा है।
अजनबीपढ़ा-लिखा होता तो तेरी ही दुकान मिली थी आकर बैठने को?
चायावालानहीं, तू तो नई दिल्ली के अशोका होटल में जाता चाय पीने। शकल देखी है आइने में?
अजनबीबकवास बंद कर और काम की बात कर।
चायवालाअबे, चाय की दुकान पर चावल कैसे मिलेंगे?
अजनबीनहीं मिलेंगे तो पूछ क्यों रहा हैक्या चाहिए? यह पूछ कि कैसी चाय चाहिए।
चायवालामेरा मतलब था कि…
अजनबीमतलब छोड़ और चाय दे। कितने की है?
चायवालापाँच रुपये की। एक काम कर, वो सामने जो प्याला रखा है, उसे धो ला।
अजनबीग्राहक धोकर लाएगा प्याला?
चायवालाचाय पीनी है तो लाना पड़ेगा धोकर।
अजनबीअगर ना लाऊँ तो?
चायवालातो? तो…
यह कहता हुआ चायवाला एक कुल्हड़ में चाय छानकर अपनी मेज पर ही अजनबी की ओर रख देता है।
चायवालाये ले, चाय उठा अपनी।
अजनबीइन भाईसाहब को तो प्याले में चाय दे रखी है, मुझे कुल्हड़ में क्यों?
चायवालाअनजान लोग अगर अपने लिए प्याला धोने में ना-नुकर करते हैं तो उनको हम कुल्हड़ में ही चाय देते हैं।
अजनबीक्यों?
चायवालादेख भाई, हम ठहरे ऊँच जात। पढ़-लिख नहीं सके सो चाय बनाने-बेचने का कारोबार करते हैं। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम ऐरे-गैरे हर आदमी के झूठे प्लेट-प्याले धोते फिरें।
अजनबीअगर सभी के लिए कुल्हड़ रख लो तो किसी का भी झूठा नहीं धोना पड़ेगा।
चायवाला(रोषपूर्वक हाथ जोड़कर) तू अपनी सलाह अपने पास रख। चाय पी, पैसे दे और अपना रास्ता नाप।  
अजनबीरख लेते हैं जी अपनी सलाह अपने पास।
यों कहकर वह फटाफट चाय पीकर खत्म करता है और क्रोधपूर्वक कुल्हड़ को जमीन में देकर मारता है। चायवाला और चौबे जी, दोनों अचरज से उसके इस व्यवहार को देखते हैं। अजनबी अपने मुँह के अन्दर से पाँच रुपए का एक सिक्का निकालकर चायवाले की ओर बढ़ाता है।
अजनबीये लो, चाय के पाँच रुपए।
चायवालायह क्या तरीका है पैसे रखने का?
अजनबीमेरे पैसे हैं। मैं इन्हें जैसे चाहूँ, जहाँ चाहूँ रखूँ।
चायवालाअबे मुँह में से निकालकर अपने थूक में सना सिक्का मेरी ओर बढ़ा रहा है?
अजनबीमैं तो ऐसे ही दूँगा। नहीं लेता तो वापस रख लेता हूँ।
यों कहकर सिक्के को वापिस अपने मुँह में रख लेता है।
चायवालाओए ठहर ओए। चाय मुफ्त की नहीं है।(अपनी हथेली फैलाकर) ला, इधर ला पाँच रुपए का सिक्का।
अजनबी सिक्के को मुँह में से निकालकर चायवाले की हथेली पर रख देता है। चायवाला पानी से भरी बाल्टी की ओर बढ़ता है और सिक्के को पानी से धोने लगता है।
अजनबीगैर जात के आदमी के थूक में सने सिक्के को पानी से धो सकता है, उसके झूठे प्याले को धोने में बेइज्जती होती है!
यों कहकर वह उस प्याले को भी उठाकर जमीन पर दे मारता है। यह देखकर चायवाला झटके से उठ खड़ा होता है
चायवालाअबे, प्याला क्यों तोड़ दिया! पागल हो गया है क्या?
 अजनबी मुँह में से निकालकर पाँच रुपए का एक सिक्का और उसकी हथेली पर जबरन रख देता है
अजनबीपाँच रुपए का यह सिक्का इस प्याले की कीमत है। ले, इसे भी धो ले।
चायवाला और चौबे जी दोनों अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर मुँह बाये अजनबी की इस हरकत को देखते रह जाते हैं।
दृश्य समाप्त

9 टिप्‍पणियां:

Rachana ने कहा…

sunder ekanki
bahut bahut badhai
rachana

kavita verma ने कहा…

bahut khoob ..

सहज साहित्य ने कहा…

अच्छा और शिक्षाप्रद नाटक

उमेश महादोषी ने कहा…

इस लघु एकांकी में भी लघुकथा की मारक क्षमता विद्यमान है। जाति-प्रथा से ग्रस्त और दोहरी मानसिकता पर करारा व्यंग्य भी।

सुधाकल्प ने कहा…

बच्चों द्वारा इसका मंचन भली प्रकार हो सकता है | दर्शकों का हँसते -हँसते पेट फूल जायेगा | भाषा आम बोलचाल की ह्रदय ग्राही है | लघु एकांकी मनोरंजक होने के साथ -साथ शिक्षा से भरपूर है --जातिवाद पर कठोर प्रहार !
सुधा भार्गव

PRAN SHARMA ने कहा…

ACHCHHA AUR SHIKSHPRAD EKAANKEE TO
HAI HEE LEKIN ISKEE SABSE BADEE
KHOOBEE HAI ISKE CHUST DURUST AUR
CHUTKEELE SANWAAD . PANDIT JI AUR
AJNABEE KO BADHAAEE . UNKE CHARITRON KO PADH KAR AANANDIT HO
GAYAA HOON .

राजेश उत्‍साही ने कहा…

एकांकी अच्‍छा है। पर दो तीन बातों को ध्‍यान में रखा जाना चाहिए। पहली बात तो किसी भी जाति विशेष का नाम सीधे-सीधे नहीं आना चाहिए। ऐसा करने से संभव है कुछ लोग इसे खेलने योग्‍य ही न मानें। जिस तरह आपने दलित वर्ग के प्रतिनिधि को अजनबी कहा है वैसा ही कुछ पंडित जी के लिए भी कहा जा सकता था। जैसे खंडित जी आदि। इसी तरह भारद्धाज आदि उपनामों के प्रयोग से भी बचने की जरूरत है। खासतौर पर तब तो और जब आप बच्‍चों के लिए लिख रहे हैं।
इसका नाम भी -जैसे को तैसा- की बजाय -सेर को सवा सेर- जैसा कुछ होना चाहिए।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

इस एकांकी पर टिप्पणी देने के लिए सभी मित्रों का आभारी हूँ। प्रिय भाई राजेश उत्साही की सलाह मानते हुए कुछ परिवर्तन आवश्यक मानकर कर दिये गये हैं। शीर्षक भी उनकी सलाह के अनुरूप ठीक लगा, सो बदल दिया। उनका विशेष आभार।

सुनील गज्जाणी ने कहा…

PRANAM ! EK ACHCHI EKAANKI KE LIYE SADHUWAD
SADAR