सोमवार, सितंबर 02, 2013

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल


मित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की नौवीं कड़ी
गतांक से आगे 
(नौवीं कड़ी)
‘‘श्रीनगर यहाँ से कितनी दूर होगा दादाजी ?’’ मणिका ने पूछा।
चित्र : चन्द्रशेखर चौहान, पुलना भ्यूंडार (चमोली, गढ़वाल)
‘‘श्रीनगर! होगा करीब 135 किलोमीटर।’’
‘‘इसका मतलब यह कि वहाँ पहुँचने में हमें करीब तीन घंटे लगेंगे?’’
‘‘हमें तो शायद तीन ही घंटे लगेंय लेकिन बस को लगेंगे चार या पाँच…’’ दादाजी ने कहा।
‘‘चार या पाँच!!’’ आश्चर्यपूर्वक उसके मुँह से निकला।
‘‘यह पहाड़ी जगह है बेटा।’’ दादाजी ने कहा, ‘‘प्लेन नहीं कि गाड़ी को दौड़ाते जाओ, दौड़ाते जाओ। फिर, बस वालों को लोकल सवारियों को भी तो उतारतेचढ़ाते रहना पड़ेगा।’’
‘‘सबसे पहले कौनसी जगह आएगी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘सबसे पहले आएगा दुगड्डा।’’ दादाजी ने बताया,‘‘यहाँ से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है।’’
‘‘यानी 10–12 मिनट में हम दुगड्डा पहुँच जाएँगे!’’ निक्की बोला।
‘‘हम तो शायद 10–12 मिनट में ही पहुँच जाएँ, लेकिन बस को वहाँ पहुँच ने में लगेंगे कम से कम 25–30 मिनट।’’ इस बार मणिका बोली।
‘‘दादाजी की नकल उतारती है चुहिया?’’ सुधाकर ने मुस्कराकर उसकी इस सकारात्मक शरारत पर हल्कीसी एक चपत उसके सिर पर लगाई।
‘‘मणिका ठीक कह रही है। ये मैदानी सड़कें नहीं हैं।’’ दादाजी बोले,‘‘पहाड़ी रास्ते हैं। कहींकहीं तो इतनी चढ़ाई होती है कि पूरी ताकत लगाने पर भी बस 15 या 20 किलोमीटर प्रतिघंटा से ज्यादा की चाल पकड़ ही नहीं पाती है। …और जहाँ ढलान है वहाँ भी ड्राइवर को कम ही स्पीड रखनी पड़ती है।’’ फिर अल्ताफ से कहा,‘‘ठीक बोल रहा हूँ न बेटे?’’
‘‘जी बाबा जी।’’ उसने कहा ।
‘‘क्यों?’’ विक्कू ने पूछा।
‘‘कोटद्वार से दुगड्डा तक तो कोई खास चढ़ाई नहीं है। उससे आगे हर दूसरेचौथे किलोमीटर पर आने वाले मोड़ों को भी देखोगे और चढ़ाइयों को भी।’’ दादाजी बताने लगे,‘‘अगर ड्राइवर तेज स्पीड में गाड़ी रखे और मोड़ पर सामने से अचानक दूसरी गाड़ी आ जाए तो?…वह अगर इधर गाड़ी को बचाने की कोशिश करेगा तो गया गहरी खाई में,  और अगर उधर बचाएगा तो पहाड़ से टकराएगा। इसलिए हर ड्राइवर स्पीड पर काबू रखता है। यहाँ, पहाड़ में, एक नियम और है बेटे!’’
‘‘क्या दादाजी?’’
‘‘अगर दो गाड़ियाँ किसी ढलान पर अचानक आमनेसामने पड़ जाएँ तो ढलान से उतरने वाली गाड़ी ढलान पर चढ़ने वाली गाड़ी को रास्ता देगी।’’
थोड़ी देर बाद ही उनकी टैक्सी एक नदी के पुल पर से गुजरी।
‘‘यह कौनसी नदी है दादाजी?’’ बच्चों ने पूछा।
‘‘यह भील नदी है।’’
बच्चे तेज गति से बहने वाली उस नदी की धारा को देखते रह गए। कुछ ही देर में टैक्सी दुगड्डा में जाकर रुक गई। बाहर फल और दूसरी चीजें बेचने वालों की आवाजों ने बच्चों का ध्यान भंग किया।
वे मुस्कराकर दादाजी की ओर देखने लगे।

‘‘दुगड्डा के बाद हम कहाँ रुकेंगे?’’ वहाँ से आगे बढ़े तो मणिका ने पूछा।
‘‘रुकतेचलते तो हम रहेंगे ही बेटी।’’ दादाजी बोले,‘‘लेकिन जानने की बात यह है कि हमारी गाड़ी अब किस महत्वपूर्ण जगह से होकर गुजरेगी?’’
‘‘किस जगह से?’’
‘‘गुमखाल से।’’
‘‘कौन-सी खाल?’’
‘‘खाल नहीं, गुमखाल। जगह का नाम है।’’
‘‘यह जगह किस तरह से महत्वपूर्ण है?’’
‘‘गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है। इस वजह से यहाँ से हिमालय की पर्वतशृंखला के दूरदूर तक दर्शन होते हैं।’’ दादाजी ने बताया,‘‘दूसरी बात यह कि, गुमखाल के पास ही भैरोंगढ़ी नाम की जगह है जहाँ पर भगवान भैरों का बहुत पुराना मंदिर है। भैरोंजी को गढ़वाल का द्वारपाल माना जाता है। भारतभर से साधु लोग यहाँ आकर साधना करते हैं और सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।’’
‘‘सिद्धियाँ क्या होती हैं दादाजी?’’
‘‘सिद्धियाँ!’’ एकदम से चक्कर में पड़ गए दादाजी। क्या बताएँ? वास्तव में तो उन्होंने भी किसी सिद्ध पुरुष को अब तक नहीं देखा था। सिर्फ सुना या पढ़ा था। लेकिन बच्चों के सवाल को टाला तो नहीं जा सकता था।
‘‘साधना के द्वारा, घोर तपस्या के, गहरे अभ्यास के द्वारा अपने अन्दर की सारी शक्तियों और क्षमताओं को जगा लेने को ही सिद्धि प्राप्त कर लेना कहते हैं।’’ थोड़ी देर सोचने के बाद दादाजी ने उन्हें समझाया,‘‘हालाँकि बहुतसे लोग सिद्धियों को जादुई या चमत्कार दिखानेवाली विद्या मान लेते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं।’’
‘‘गुमखाल के बाद तो बस नीचे की ओर उतरना शुरू हो जाएगी न?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘हाँ।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘यह तूने कैसे जाना दीदी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘कॉमनसेंस!’’ मणिका मुस्कराकर बोली।
‘‘बता न।’’
‘‘कहा नकॉमनसेंस!’’
‘‘आप बताइए दादाजी, इसने कैसे जाना कि गुमखाल के बाद टैक्सी ढलान पर उतरेगी?’’ निक्की दादाजी से बोला।
‘‘उसने जाना, क्योंकि वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही है।’’ दादाजी ने कहा।
‘‘ध्यान से तो मैं भी आपकी बातें सुन रहा हूँ!’’ निक्की ने कहा ।
‘‘तब तुम्हें यह भी ध्यान होगा कि मैंने बताया था कि गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है।’’ दादाजी बोले।
‘‘जी।’’
‘‘क्या जी’? तू भी एकदम अपने बाप पर ही गया है…निरा बुद्धू।’’ दादाजी क्षोभ-भरे स्वर में बोले,‘‘अरे भाई, टैक्सी जब पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाएगी तो आगे बढ़ने के लिए ढलान के अलावा रास्ता ही क्या होगा।’’
‘‘बच्चों के बीच में बिना बात ही आप मुझे क्यों घसीट रहे हैं बाबूजी?’’ इस बात पर सुधाकर ने उन्हें टोका।
‘‘इसलिए कि यह तेरेजैसी बेसिर की बातें कर रहा है।’’ दादाजी ने सफाई दी।
‘‘अरे, मेरी बात को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया आप लोगों ने।’’ मणिका तुनककर बोली,‘‘मेरी बात पर आ जाइए दादाजी, उसके बाद हम कहाँ पहुँचेंगे?’’
‘‘सतपुली…उसके बाद हम सतपुली पहुँचेंगे।’’
‘‘और उसके बाद?’’
‘‘मैंने बताया न, रुकतेचलते तो हम रहेंगे ही।’’ दादाजी बोले,‘‘देखने लायक रास्ते में बहुतसी जगहें आएँगी…बहुतसी दाएँबाएँ छूट जाएँगी। जैसेएकेश्वर महादेव की ओर जाने वाला रास्ता, शृंगी ॠषि का आश्रम, ताराकुण्ड ताल और कंडारस्यूं पैठाणी का सुप्रसिद्ध शनिमंदिर जो नवीं शताब्दी का माना जाता है।’’
टैक्सी के हिचकोले बच्चों को पालने में झूलनेजैसा सुख दे रहे थे। यह सुख उन्हें बारबार निद्रादेवी की गोद में चले जाने को विवश कर रहा था, लेकिन प्रकृति की अद्भुत् छटा को बन्द आँखों से तो देखा नहीं जा सकता था। सो, नींद को वे बारबार सलामकहते रहे। दादाजी से कुछ पूछने से ज्यादा अब उन्हें प्रकृतिदर्शन अच्छा लग रहा था। कम से कम सतपुली पहुँचने तक तो वे कुछ पूछने वाले थे नहीं। मौका ताड़कर दादाजी ने भी अपने शरीर को जरा ढीला छोड़ दिया और आँखें बन्द करके सो जाने की कोशिश करने लगे।

कथायात्रा-9
सेमित्रो, 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की नौवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                                       (नौवीं कड़ी)

‘‘श्रीनगर यहाँ से कितनी दूर होगा दादाजी ?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘श्रीनगर! होगा करीब 135 किलोमीटर।’’
‘‘इसका मतलब यह कि वहाँ पहुँचने में हमें करीब तीन घंटे लगेंगे?’’
‘‘हमें तो शायद तीन ही घंटे लगेंय लेकिन बस को लगेंगे चार या पाँच…’’ दादाजी ने कहा।
‘‘चार या पाँच!!’’ आश्चर्यपूर्वक उसके मुँह से निकला।
‘‘यह पहाड़ी जगह है बेटा।’’ दादाजी ने कहा, ‘‘प्लेन नहीं कि गाड़ी को दौड़ाते जाओ, दौड़ाते जाओ। फिर, बस वालों को लोकल सवारियों को भी तो उतारतेचढ़ाते रहना पड़ेगा।’’
‘‘सबसे पहले कौनसी जगह आएगी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘सबसे पहले आएगा दुगड्डा।’’ दादाजी ने बताया,‘‘यहाँ से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर है।’’
‘‘यानी 10–12 मिनट में हम दुगड्डा पहुँच जाएँगे!’’ निक्की बोला।
‘‘हम तो शायद 10–12 मिनट में ही पहुँच जाएँ, लेकिन बस को वहाँ पहुँच ने में लगेंगे कम से कम 25–30 मिनट।’’ इस बार मणिका बोली।
‘‘दादाजी की नकल उतारती है चुहिया?’’ सुधाकर ने मुस्कराकर उसकी इस सकारात्मक शरारत पर हल्कीसी एक चपत उसके सिर पर लगाई।
‘‘मणिका ठीक कह रही है। ये मैदानी सड़कें नहीं हैं।’’ दादाजी बोले,‘‘पहाड़ी रास्ते हैं। कहींकहीं तो इतनी चढ़ाई होती है कि पूरी ताकत लगाने पर भी बस 15 या 20 किलोमीटर प्रतिघंटा से ज्यादा की चाल पकड़ ही नहीं पाती है। …और जहाँ ढलान है वहाँ भी ड्राइवर को कम ही स्पीड रखनी पड़ती है।’’ फिर अल्ताफ से कहा,‘‘ठीक बोल रहा हूँ न बेटे?’’
‘‘जी बाबा जी।’’ उसने कहा ।
‘‘क्यों?’’ विक्कू ने पूछा।
‘‘कोटद्वार से दुगड्डा तक तो कोई खास चढ़ाई नहीं है। उससे आगे हर दूसरेचौथे किलोमीटर पर आने वाले मोड़ों को भी देखोगे और चढ़ाइयों को भी।’’ दादाजी बताने लगे,‘‘अगर ड्राइवर तेज स्पीड में गाड़ी रखे और मोड़ पर सामने से अचानक दूसरी गाड़ी आ जाए तो?…वह अगर इधर गाड़ी को बचाने की कोशिश करेगा तो गया गहरी खाई में,  और अगर उधर बचाएगा तो पहाड़ से टकराएगा। इसलिए हर ड्राइवर स्पीड पर काबू रखता है। यहाँ, पहाड़ में, एक नियम और है बेटे!’’
‘‘क्या दादाजी?’’
‘‘अगर दो गाड़ियाँ किसी ढलान पर अचानक आमनेसामने पड़ जाएँ तो ढलान से उतरने वाली गाड़ी ढलान पर चढ़ने वाली गाड़ी को रास्ता देगी।’’
थोड़ी देर बाद ही उनकी टैक्सी एक नदी के पुल पर से गुजरी।
‘‘यह कौनसी नदी है दादाजी?’’ बच्चों ने पूछा।
‘‘यह भील नदी है।’’
बच्चे तेज गति से बहने वाली उस नदी की धारा को देखते रह गए। कुछ ही देर में टैक्सी दुगड्डा में जाकर रुक गई। बाहर फल और दूसरी चीजें बेचने वालों की आवाजों ने बच्चों का ध्यान भंग किया।
वे मुस्कराकर दादाजी की ओर देखने लगे।

‘‘दुगड्डा के बाद हम कहाँ रुकेंगे?’’ वहाँ से आगे बढ़े तो मणिका ने पूछा।
‘‘रुकतेचलते तो हम रहेंगे ही बेटी।’’ दादाजी बोले,‘‘लेकिन जानने की बात यह है कि हमारी गाड़ी अब किस महत्वपूर्ण जगह से होकर गुजरेगी?’’
‘‘किस जगह से?’’
‘‘गुमखाल से।’’
‘‘कौन-सी खाल?’’
‘‘खाल नहीं, गुमखाल। जगह का नाम है।’’
‘‘यह जगह किस तरह से महत्वपूर्ण है?’’
‘‘गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है। इस वजह से यहाँ से हिमालय की पर्वतशृंखला के दूरदूर तक दर्शन होते हैं।’’ दादाजी ने बताया,‘‘दूसरी बात यह कि, गुमखाल के पास ही भैरोंगढ़ी नाम की जगह है जहाँ पर भगवान भैरों का बहुत पुराना मंदिर है। भैरोंजी को गढ़वाल का द्वारपाल माना जाता है। भारतभर से साधु लोग यहाँ आकर साधना करते हैं और सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।’’
‘‘सिद्धियाँ क्या होती हैं दादाजी?’’
‘‘सिद्धियाँ!’’ एकदम से चक्कर में पड़ गए दादाजी। क्या बताएँ? वास्तव में तो उन्होंने भी किसी सिद्ध पुरुष को अब तक नहीं देखा था। सिर्फ सुना या पढ़ा था। लेकिन बच्चों के सवाल को टाला तो नहीं जा सकता था।
‘‘साधना के द्वारा, घोर तपस्या के, गहरे अभ्यास के द्वारा अपने अन्दर की सारी शक्तियों और क्षमताओं को जगा लेने को ही सिद्धि प्राप्त कर लेना कहते हैं।’’ थोड़ी देर सोचने के बाद दादाजी ने उन्हें समझाया,‘‘हालाँकि बहुतसे लोग सिद्धियों को जादुई या चमत्कार दिखानेवाली विद्या मान लेते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं।’’
‘‘गुमखाल के बाद तो बस नीचे की ओर उतरना शुरू हो जाएगी न?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘हाँ।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘यह तूने कैसे जाना दीदी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘कॉमनसेंस!’’ मणिका मुस्कराकर बोली।
‘‘बता न।’’
‘‘कहा नकॉमनसेंस!’’
‘‘आप बताइए दादाजी, इसने कैसे जाना कि गुमखाल के बाद टैक्सी ढलान पर उतरेगी?’’ निक्की दादाजी से बोला।
‘‘उसने जाना, क्योंकि वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही है।’’ दादाजी ने कहा।
‘‘ध्यान से तो मैं भी आपकी बातें सुन रहा हूँ!’’ निक्की ने कहा ।
‘‘तब तुम्हें यह भी ध्यान होगा कि मैंने बताया था कि गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है।’’ दादाजी बोले।
‘‘जी।’’
‘‘क्या जी’? तू भी एकदम अपने बाप पर ही गया है…निरा बुद्धू।’’ दादाजी क्षोभ-भरे स्वर में बोले,‘‘अरे भाई, टैक्सी जब पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाएगी तो आगे बढ़ने के लिए ढलान के अलावा रास्ता ही क्या होगा।’’
‘‘बच्चों के बीच में बिना बात ही आप मुझे क्यों घसीट रहे हैं बाबूजी?’’ इस बात पर सुधाकर ने उन्हें टोका।
‘‘इसलिए कि यह तेरेजैसी बेसिर की बातें कर रहा है।’’ दादाजी ने सफाई दी।
‘‘अरे, मेरी बात को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया आप लोगों ने।’’ मणिका तुनककर बोली,‘‘मेरी बात पर आ जाइए दादाजी, उसके बाद हम कहाँ पहुँचेंगे?’’
‘‘सतपुली…उसके बाद हम सतपुली पहुँचेंगे।’’
‘‘और उसके बाद?’’
‘‘मैंने बताया न, रुकतेचलते तो हम रहेंगे ही।’’ दादाजी बोले,‘‘देखने लायक रास्ते में बहुतसी जगहें आएँगी…बहुतसी दाएँबाएँ छूट जाएँगी। जैसेएकेश्वर महादेव की ओर जाने वाला रास्ता, शृंगी ॠषि का आश्रम, ताराकुण्ड ताल और कंडारस्यूं पैठाणी का सुप्रसिद्ध शनिमंदिर जो नवीं शताब्दी का माना जाता है।’’
टैक्सी के हिचकोले बच्चों को पालने में झूलनेजैसा सुख दे रहे थे। यह सुख उन्हें बारबार निद्रादेवी की गोद में चले जाने को विवश कर रहा था, लेकिन प्रकृति की अद्भुत् छटा को बन्द आँखों से तो देखा नहीं जा सकता था। सो, नींद को वे बारबार सलामकहते रहे। दादाजी से कुछ पूछने से ज्यादा अब उन्हें प्रकृतिदर्शन अच्छा लग रहा था। कम से कम सतपुली पहुँचने तक तो वे कुछ पूछने वाले थे नहीं। मौका ताड़कर दादाजी ने भी अपने शरीर को जरा ढीला छोड़ दिया और आँखें बन्द करके सो जाने की कोशिश करने लगे।

                                                              आगामी अंक में जारी

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