गुरुवार, अक्तूबर 10, 2013

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की ग्यारहवीं कड़ी
गतांक से आगे                                                                                             
                                         (ग्यारहवीं कड़ी)

‘‘अच्छा सुनो।’’ बात के तारतम्य को जोड़ते हुए दादाजी ने बताना शुरू किया,‘‘समुद्रतल से पौड़ी की ऊँचाई हैकरीब साढ़े पाँच हजार फुट। इसलिए हिमालय की बहुतसी चोटियाँ यहाँ से स्पष्ट नजर आती हैं। सुबह उषाकाल में उ़पर उठते अरुण की रक्तवर्णी किरणें जब बर्फीली चोटियों को अपनी आभा से सुशोभित करती हैं तो देखने वाले बस देखते ही रह जाते हैं।’’
‘‘क्या ब्बात है।’’ यह सुनकर सुधाकरजी एकदम बोल उठे,‘‘हमें गर्व है बाबूजी कि हम आपकी सन्तान हैं। महाकवि कालिदास के बाद एक आप ही हैं जो कभीकभी इतनी गहरी भाषा बोल सकते हैं कि आसपास बैठे लोगों के सिर पर से गुजर जाए।’’
दादाजी उनके इस जुमले पर कुछ बोल पाते, उससे पहले ही मणिका शिकायतीस्वर में बोल उठी,‘‘यह क्या दादाजी! सादा और सरल भाषा बोलिए न! आसानी से हम बच्चों की समझ में आने वाली।’’
‘‘सॉरी बेटे, कभीकभी मन बहुत भावुक हो उठता है।’’

टैक्सी अब तक पौड़ी पहुँच चुकी थी। यह अच्छाखासा उन्नत नगर है। ठहरने के लिए बहुतसे साधन हैं। आसपास कोई उ़ँची पर्वतशृंखला न होने के कारण यहाँ झरने नहीं हैं और इसीलिए पानी की व्यवस्था नीचे, घाटी में बसे श्रीनगर से पाइपलाइन बिछाकर की गई है।
नजीबाबाद और कोटद्वार से पौड़ी तक बस द्वारा आने वाली सवारियाँ कई घण्टे लगातार बैठी रहने के कारण थक जाती हैं और बस के रुकते ही नीचे उतर पड़ती हैं। प्राकृतिक सुन्दरता का चहेता न हो तो पहाड़ी रास्तों की यात्रा आदमी के शरीर के साथसाथ मन को भी बेहद थका डालती है। मणिकानिक्की, ममतासुधाकर और दादाजी भी चहलकदमी के लिए टैक्सी से उतर पड़े। दादाजी से अलग दोनों बच्चे नीचे, घाटी की ओर उतरने वाली सड़क के बायें किनारे पर बने खेतों को देखने लगे।
‘‘दीदी, देखकिताब में छपेजैसे सीढ़ीनुमा खेत!’’ निक्की चहक उठा,‘‘…और उधर, नीचे देखकितने छोटेछोटे बैल…गुलीवर की कहानीजैसे!’’
‘‘धत्, ये छोटे नहीं हैं बुद्धू।’’ मणिका बोली,‘‘बहुत दूर से देखने के कारण ये ऐसे नज़र आ रहे हैं।…वह सड़क देख, घुँघराले बालोंजैसी लहरदार! और उस पर खिलौनोंजैसी दौड़ती रंगबिरंगी बसें!!’’
‘‘कितनी छोटीछोटी!!!’’ निक्की तालियाँ बजाता उछला,‘‘ऐसा तो एक खिलौना भी है न हमारे पास।’’
‘‘तू क्या समझता हैसचमुच ये खिलौने हैं?’’ मणिका बुजुर्गों की तरह बोली,‘‘क्योंकि हम बहुत उ़ँचाई से इन्हें देख रहे हैं इसलिए ये सब हमें इतने छोटे नजर आ रहे हैं।’’
‘‘मैं समझ गया दीदी।’’
इतने में उत्तराखण्ड राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस के ड्राइवर ने बस को आगे बढ़ाने का संकेत देने के लिए हॉर्न बजाया। उसमें जाने वाली, आसपास टहल रही सभी सवारियाँ एकएक कर बस में जा बैठीं।
दोनों बच्चे और दादाजी भी बस को देखते खड़े रहे।
‘‘हाँ भाई, किसी का कोई साथी, कोई पड़ोसी, कोई बच्चा बाहर तो नहीं रह गया बस से?’’ कण्डक्टर ने बस में बैठी सवारियों से पूछा, फिर बाहर की ओर आवाज़ लगाई और बस को आगे बढ़ाने के लिए सीटी बजा दी।
बस आगे श्रीनगर की ओर जानेवाली ढालू सड़क पर मुड़ गई।
‘‘यह बस किधर जा रही है दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘यह रास्ता श्रीनगर की ओर जाता है। कुछ देर बाद हम भी इसी रास्ते पर चलेंगे।’’
‘‘आपको यहाँ न रुककर सीधे श्रीनगर में ही रुकना चाहिए था न दादाजी।’’ निक्की बोला।
‘‘देखो बेटे, लम्बी पहाड़ी यात्राओं में, जहाँ तक बन सके, छोटीछोटी दूरियाँ ही तय करते हुए चलना चाहिए। दूसरी बात यह कि यात्रा के दौरान किसी वजह से अगर कहीं रुकने का मन करे तो सोचो मत, रुक जाओ।’’
निक्की कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर इधरउधर घूमघामकर ममता, सुधाकर, दादाजी और निक्कीमणि…सब के सब पुन% टैक्सी में आ बैठे । टैक्सी उसी रास्ते पर आगे बढ़ चली जिस पर कुछ समय पहले उत्तराखण्ड राज्य सड़क परिवहन निगम की बस गई थी।

आधे घण्टे से भी कम समय में टैक्सी श्रीनगर बसस्टैंड पर जा खड़ी हुई। घाटी में बसा हुआ यह नगर एकदम मैदानी नगरजैसा आधुनिक लगता है। बड़ेबड़े होटलरेस्तराँ और बाज़ार। उ़ँची इमारतें और चैड़ी सड़कें। गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर, आईटीआई, पॉलीटेक्नीक, पर्यटकभवन और धर्मशालाएँ। इन सबसे ऊपर, सौन्दर्य की अभिवृद्धि करते चारों तरफ खड़े हरेभरे उ़ँचे पहाड़। एक किनारे पर तेज गति से दौड़ती अलकनन्दा। सीढ़ीदरसीढ़ी उ़पर को चढ़ते धान के खेत। अनगिनत मन्दिर। बदरीनाथ की ओर जाने वाले पर्यटकों के लिए श्रीनगर आरामदेह हॉल्ट है।
‘‘आज का दिन हम यहीं पर बिताएँगे बच्चो!’’ दादाजी बोले, ‘‘चलो, उतरो।’’
‘‘लेकिन, हम तो भगवान बदरीनाथ के दर्शन को जा रहे हैं न दादाजी?’’ मणिका बोली।
‘‘बेशक।’’
‘‘तब, यहीं पर क्यों उतर रहे हैं आप?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘देखो बेटे! भगवान बदरीनाथ के दर्शन जितना ही महत्वपूर्ण विचार यह भी है कि हम बदरीधाम की यात्रा पर निकले हैं।’’ दादाजी बोले,‘‘सुन्दर और महत्वपूर्ण स्थानों पर तीर की तरह पहुँच जाने को यात्रा नहीं कहते। बीच में पड़ने वाली जरूरी जगहों के बारे में जानते हुए, उनके सौन्दर्य का पान करते हुए…उसे आत्मसात् करते हुए, वहाँ के छोटे से छोटे, गरीब से गरीब बाशिंदे से बातें करते हुए, उस बातचीत के जरिए वहाँ की संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हुए, यह जानने की कोशिश करते हुए कि वहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन क्या है,   हमें आगे बढ़ना चाहिए। इस यात्रा में यह श्रीनगर हमारा पहला पड़ाव है।’’
‘‘यहाँ हम किस होटल में रुकेंगे दादाजी?’’ निक्की ने पुन: पूछा।
‘‘रुकने के लिए होटलोंधर्मशालाओं और यात्रीनिवासों की यहाँ कोई कमी नहीं है बेटे।…फिलहाल हम बाबा काली कमली वाले के यात्रीनिवास में रुकेंगे।’’ यह कहकर वे अल्ताफ से बोले,‘‘गाड़ी उधर ले चलो अल्ताफ, उधर––जहाँ वह बोर्ड लगा है।’’
‘‘जिस पर विश्रामगृहलिखा है बाबाजी?’’ अल्ताफ ने पूछा।
‘‘हाँ,’’ दादाजी ने कहा,‘‘उसी के बराबर में बाबा काली कमली वाले का यात्रीनिवास है, वहाँ रोकना।’’
अल्ताफ ने टैक्सी को वहाँ लेजाकर रोक दिया। आसपास घूम रहे बहुतसे कुलियों में से एक को आवाज़ लगाकर दादाजी ने टैक्सी से सामान उतारकर बाबा काली कमली वाले के यात्रीनिवास में भीतर तक ले चलने का आदेश दिया।
‘‘यह काली कमली वाले बाबा कौन हैं दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘हैं नहीं, थे।’’ दादाजी बोले,‘‘पंजाब के एक जिले गुजरांवाला के जलालपुर कीकना में सन् 1831 में उनका जन्म हुआ था। सिर्फ 32 साल की उम्र में वे संन्यासी हो गये थे। स्वामी विशुद्धानन्द नाम था उनका। उत्तराखण्ड से उन्हें बेहद प्यार था और यहाँ आने वाले यात्रियों की विश्राम सम्बन्धी परेशानियों को महसूस करके सन् 1880 में उन्होंने एक ट्रस्ट बनाया। उस ट्रस्ट के माध्यम से उन्होंने यहाँ के हर तीर्थ पर धर्मशालाएँ बनवाईं।’’
‘‘काली कमली का क्या मतलब है दादाजी?’’ निक्की ने पूछा।
                                                                                                                          आगामी अंक में जारी

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