बुधवार, अगस्त 09, 2023

नरवाहन / बलराम अग्रवाल

“जीवित रहते मैं एक बड़े लोकतन्त्र का शासक था” वेताल ने बोलना शुरू किया, “अनेक वर्षों तक जनता के सिरों पर नाचता रहा।”

फिर!”

फिर, मेरे मन में एक इच्छा जागी कि लोकतन्त्र हो या राजतन्त्र, जनता तो कमजोर और बेबस ही रहती है। अब किसी राजा पर सवारी गाँठनी चाहिए। तुम्हें शायद विश्वास न हो कि इस इच्छा के अगले दिन ही मेरी हत्या हो गयी।

ओह!”

अफसोस मेरी हत्या पर नहीं, उस इच्छा पर करो जिसे साक्षात् देखने के लिए मुझे अपनी हत्या से गुजरना पड़ा।

मतलब?”

जीवित रहते किसी राजा पर नहीं लद सका था, लेकिन

“हे भगवान्!” तात्पर्य समझकर विक्रम के मुँह से निकला।

“दुआ करो, जीते-जी किसी पर लदने की इच्छा कभी भी तुम्हारे मन में न जागे! वेताल ने कहा और उड़ गया।

 ( प्रकाशित : समकाल, लघुकथा विशेषांक, अगस्त 2023, पृष्ठ 34-36/ अ सं अशोक भाटिया )

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