शाम होते-होते इलाके में कर्फ्यू लागू कर दिया गया था।
रात होते-होते बाप-बेटे के दिमाग में पड़ोसी को फँसा देने की योजना कौंधी।
“इस साले का घर फूँक डालने का यह बेहतरीन मौका है पापा।” बेटा बोला,“ना रहेगा बाँस और ना…”
“उल्लू का पट्ठा है तू।” बाप ने उसे झिड़का,“घर को आग लगाने से बाँस खत्म नहीं होगा…मजबूत हो जाएगा और ज्यादा।”
“कैसे?”
“मुआवजा!” बाप बोला,“इन्हें तो सरकार वैसे भी दुगुना देती है।”
“फिर?”
“फिर क्या, कोई दूसरा तरीका सोच।”
दोनों पुन: विचार-मुद्रा में बैठ गए।
“आ गया।” एकाएक बेटा उछलकर बोला। बाप सवालिया नजरों से उसकी ओर देखने लगा।
“उसके नहीं, हम अपने घर को आग लगाते हैं।” बेटे ने बताया,“स्साला ऐसा फँसेगा कि मत पूछो। साँप भी मर जाएगा और…”
“बात तो तेरी ठीक है…” बाप कुछ सोचता-सा बोला,“लेकिन बहुत होशियारी से करना होगा यह काम। ऐसा न हो कि उधर की बजाय इधर के साँप मर जायँ और बराबर वाले की बिना कुछ करे-धरे ही पौ-बारह हो जाय।”
फोटो:बलराम अग्रवाल |
“उसकी फिकर तुम मत करो।” वह इत्मीनान के साथ बोला,“आग कुछ इस तरह लगाऊँगा कि शक उस के सिवा किसी और पर जा ही ना सके।”
यह कहते हुए वह उठा और बाहर का जायजा लेने के लिए दरवाजे तक जा पहुँचा। बड़ी सावधानी के साथ बे-आवाज रखते हुए उसने कुंडे को खोला और एक किवाड़ को थोड़ा-सा इधर करके पड़ोसी के दरवाजे की ओर बाहर गली में झाँका। उसकी साँस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई जब अपने मकान के सामने गश्त लगा रहे पड़ोसी चाचा ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया।
“ओए, घबराओ नहीं मेरे बच्चे!” उसे देखते ही वे हाथ के लट्ठ से जमीन को ठोंकते हुए बोले,“जब तक दम में दम है, परिंदा भी पर नहीं मर सकता है गली में। अपने इस चाचा के भरोसे तू चैन से सो…जा।”
11 टिप्पणियां:
तुम्हारी इस लघुकथा ने रमेश बत्तरा की याद दिला दी। जब मैंने उसे अपनी दिल्ली दंगों पर आधारित लघुकथा "इन्सानी रंग" पढ़ने को दी तो उनका कहना था कि ऐसे नाजुक विषयों पर बहुत ही एतिहात से लिखने की ज़रूरत होती है। साम्प्रदायिका पर चोट करते करते कहीं समाज में रचना द्वारा नकारात्मक संदेश नहीं जाना चाहिए। किसी एक वर्ग या सम्प्रदाय का पक्ष भी खुलकर नहीं आना चाहित। लेखक की दृष्टि खुली होनी चाहिए। अब सवाल तुम्हारी इस लघुकथा का है। आरंभिक पंक्तियों में जो स्थितियँ/संवाद आये हैं उससे रमेश बत्तरा द्वारा जिस भय की ओर संकेत किया गया है, वह स्पष्टत: झलकता है। लेकिन लघुकथा अथवा कोई भी रचना अपने आरंभ से नहीं अपनी समग्रता में क्या संदेश दे रही है, यह विचारणीय होता है। नाकारात्मक सोच को कैसे सकारात्मक बिन्दु पर तुमने खत्म किया है, यह काबिले गौर है। यही रचना की जान है। एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई !
भरोसा उत्कृष्ट लघुकथा है । ऐसी लघुकथाएँ कई कहाइयों पर भारी पड़ती हैं । विषयवस्तु और शिल्प की दृष्टि से मंजी हुई रचना है । बहुत साधुवाद !
शुक्रिया बलराम जी। आपने अपनी इस लघुकथा में शब्दों पर कर्फ्यू लगाकर इसे कस दिया है। पर अपनी आदत से बाज नहीं आऊंगा सो कहूंगा कि अंत में भी थोड़ी सी और कसावट चाहिए।
साजिश और संवेदना, दोनो को सशक्त तरीके से उकेरती लघुकथा
विपथित अंत की टेकनीक का सुंदर उदाहरण!
अभिनंदन बंधु !
BAAP - BETE KEE DAAL NAHIN GAL
PAAYEE . KISEENE SACH HEE KAHAA
HAI -
MUDDAEE LAAKH BURA CHAHE TO
KYA HOTA HAI
VOHEE HOTA HAI JO MANZOOR - E -
KHUDA HOTA HAI
CHUST SANVAADON SE SAJEE
" BHAROSA " KEE KATHAVASTU MUN
PAR GAHRAA PRABHAAV CHHODTEE HAI.
भई वाह, बहुत अच्छी लघुकथा. बधाई.
चन्देल
बस एक पंक्ति याद आती है इस कथा पर.....
"जो तोके काँटा बोये ओही बोये तू फूल."
सुन्दर.
I remembered Munshi Premchand for your this short story. Wah.... what a thought for humanity.
जय हो... :)
jis rochakta ko aap ne aadi se ant tak banaye rakha aur jis sakaratmak mod par kahani ko khatm kiya vo aapki paripakv soch ko darshati hai...bahut sunder.
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