'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की अठारहवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…
(अठारहवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
टैक्सी रुद्रप्रयाग की सीमा में प्रवेश कर चुकी थी। बच्चे इस
समय एकदम चुप थे। कलियासौड़ का भयावह दृश्य वे भूल नहीं पा रहे थे। वहाँ कई घण्टे
बरबाद हो चुके थे।
‘‘भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना देखने–सुनने को नहीं मिली।’’ दादाजी कह रहे थे।
दिन करीब–करीब
ढल ही चुका था। जाहिर था कि वे सब आज की रात रुद्रप्रयाग में ही रुकेंगे। बस–स्टैंड के निकट पहुँचे ही थे कि अल्ताफ ने देखा—दुबला-पतला एक
बूढ़ा गढ़वाली गुस्से में बोलता हुआ सड़क के बीचों-बीच तेजी के साथ इधर से उधर और उधर
से इधर घूम रहा है। उसकी चाल-ढाल और बर्ताव से डरकर अल्ताफ ने गाड़ी को आगे बढ़ाने
की बजाय किनारे लगा दिया।
“क्या हुआ?” दादा
जी ने पूछा, “गाड़ी किनारे क्यों लगा दी?”
“सामने इस भले आदमी
को छेड़ दिया लगता है किसी मनचले ने…” अल्ताफ बोला, “काफी गुस्से में है। कहीं गाड़ी
पर ही पत्थर-उत्थर न दे मारे, इसलिए साइड में लगा दी है कुछ देर के लिए।”
सड़क पर उसे उकसाने
वालों की भीड़-सी लग गई थी। थोड़ा शांत होते ही कोई न कोई तुरन्त उससे कुछ कह देता
और वह फिर शुरू हो जाता।
“बोड़ा जी, वो
टूरिस्ट कह रहे थे कि आगे कभी नहीं आना इधर…” किसी ने छेड़ा।
“मत आना जी,
मत आना… ये कोई पिकनिक स्पाट
नहीं है …देवताओं की भूमि है… देवों की घाटी है ये… रहकर देखो कुछ दिन इधर …नानी-दादी सब याद आ
जायेंगी जब चढ़ना-उतरना पड़ेगा ढलानों पर… सावन के महीने में पवन ऐसा सोर करता है
लालाजी कि जियरा झूमना बंद कर देता है… अच्छे-अच्छे की आँखें बंद हो जाती हैं डर
के मारे …भाई मेरे, यहाँ के पेड़ों पर झूले नहीं पड़ते …मवेशियों के लिए घास रखी
जाती है सँजोकर…”
“कह रहे थे रास्ते
बड़े खतरनाक हैं।” उसे सुनाता हुआ कोई दूसरा बोला।
“खतरनाक रास्तों पर
चलकर ही स्कूल जाते हैं हमारे बच्चे… माँएँ, बेटियाँ और बहुएँ इन्हीं रास्तों से
घास काटने और मवेसी चराने को जाती हैं… तुम्हारा क्या, तुमने तो अंकल चिप्स के खोल
और बिसलरी की बोतलें और पोलीथीन फेंक जानी हैं यहाँ… गंदा कर जाना है सारे माहौल को…” यों कहता हुआ
वह बूढ़ा सड़क पर दूसरी ओर को चला गया। किसी ने पुन: उकसाया तो उसने सुना नहीं, चलता
चला गया।
“चलो, जान बची।”
गाड़ी स्टार्ट करते हुए अल्ताफ बुदबुदाया, “बोलता रहता तो पता नहीं कितनी देर और
गाड़ी को यूँ ही खड़ी किये रखना पड़ता।”
“जो भी हो, बातें
तो वह ठीक ही कह रहा था बेचारा।” पीछे बैठे दादा जी अल्ताफ से बोले।
“वह सब तो ठीक है
बाबू जी, ” सुधाकर बोले, “लेकिन इस समय हम ये सब शिकायतें सुनते हुए समय बरबाद
करने की हालत में नहीं हैं न।”
“यह एक अलग बात
है।” दादा जी बोले, “लेकिन हम घूमने आने वालों से उसकी शिकायतें सब की सब जायज
थीं।”
“आप तो यहाँ के रंग
में रंगे हुए हो,” सुधाकर ने कहा, “आप नहीं समझोगे।”
“और तुम इसलिए नहीं
समझोगे कि तुम इस रंग के असर को जानते नहीं हो। खैर, गाड़ी चलाओ अल्ताफ; साहब को
किसी का दु:ख-दर्द सुनने की फुर्सत नहीं है, देर हो रही है।” दादा जी
व्यंग्यपूर्वक बोले।
अल्ताफ ने गाड़ी
स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी। कुछ ही आगे गाड़ी पार्क की जा सकने लायक जगह देखकर उसने टैक्सी को रोक दिया क्योंकि उसे पहले ही
बता दिया गया था कि रुद्रप्रयाग जाना है। बच्चों को साथ लेकर दादाजी नीचे उतरे।
सुधाकर ने कुली को आवाज़ दी और उसे सामान उठाकर ‘बदरी केदार सेवा समिति’ के विश्रामघर की ओर ले चलने को कहा।
विश्रामघर में सामान रखने के बाद दादाजी आराम से लेटने की बजाय
कमरे को ताला लगाकर बच्चों को बाजार घुमाने ले चले। ममता और सुधाकर भी साथ चले।
‘‘रुद्रप्रयाग में बाबा काली कमली वाले की धर्मशाला नहीं है
दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘है…लेकिन वह बाजार से दूर है। अलकनन्दा के पुल के उस पार।’’
घूमते और बातें करते वे अलकनन्दा के पुल तक गए। फिर वापस
विश्रामघर के अपने कमरे की ओर लौट चले। खाना खाने के मूड में न तो बच्चे थे और न
ही दादाजी। इसलिए कमरे पर पहुँचकर उन्होंने अन्दर से उसे बन्द किया और लाइट बन्द
करके बिस्तर में घुस गए।
‘‘रुद्र तो भगवान शिव का ही एक नाम है न दादाजी।’’ मणिका ने अँधेरे में ही बातचीत शुरू की।
‘‘हाँ बेटे।’’ दादाजी
बोले,‘‘भगवान रुद्र को
प्रसन्न करके नारदजी ने यहीं पर उनसे ‘वीणा’ प्राप्त
की थी और यहीं पर उनसे संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उससे पहले नारद के हाथों
में वीणा नहीं रहती थी।’’
‘‘यहाँ भी कई प्रसिद्ध मन्दिर होंगे दादाजी।’’ मणिका ने पुन: पूछा।
‘‘उत्तराखण्ड का तो चप्पा–चप्पा मन्दिर है बेटे।’’ दादाजी बोले,‘‘यहाँ से चार–साढ़े चार किलोमीटर दूर कोटेश्वर महादेव
की एक गुफा है। इस गुफा के भीतर अनेक शिवलिंग हैं, जिन पर गुफा की छत से लगातार पानी टपकता
रहता है।…कल सवेरे रास्ते में एक जगह मैं तुमको दिखाऊँगा। सवेरे जल्दी उठना है। अब
सो जाओ।’’
‘‘सिर्फ एक बात और दादाजी…’’ निक्की बोला ।
‘‘पूछो।’’
‘‘अरे, पूछना
कुछ नहीं है…मेरे कहने का मतलब है कि सोने से पहले अपनी ओर से सिर्फ एक कहानी और
बता दीजिए।’’
‘‘एक कहानी और!…’’ उसकी याचना पर दादाजी कुछ सोचने लगे, फिर बोले,‘‘सुनो, यह रुद्रप्रयाग, हमारी तरह नीचे, मैदान की तरफ से आने वाले यात्रियों के
लिए बदरीनाथ और केदारनाथ का संगम है। जो लोग केदारनाथ के दर्शन के लिए जाना चाहते
हैं वे यहाँ से गौरीकुंड को जाते हैं और जिन्हें बदरीनाथ के दर्शन के लिए जाना
होता है वे हमारी तरह इसी रास्ते पर आगे की ओर बढ़ते हैं।’’
उनकी बातें सुनते हुए बच्चे उत्सुक आँखों से उन्हें निहारते
बैठे थे कि दादाजी बोले,‘‘आज
बस इतना ही।…गुड नाइट!’’
बच्चों ने धीमे स्वर में ‘गुड नाइट’ कहा। लेटे तो थे ही, चुपचाप सो गए।
आगामी अंक में जारी…
1 टिप्पणी:
balraam ji achcha prayas hai badhai
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