'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013
से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था।
प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की इक्कीसवीं कड़ी…
गतांक से
आगे…(इक्कीसवीं कड़ी)
चित्र:बलराम अग्रवाल |
‘‘चमोली तो जिला है न दादाजी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘हाँ बेटे,’’ दादाजी
बोले,‘‘लेकिन कुछ अजीब तरह
से।’’
‘‘सो कैसे?’’
‘‘सो ऐसे कि चमोली नामभर को ही जिला रह गया है। इसके सारे के
सारे प्रशासनिक मुख्यालय ऊपर गोपेश्वर में ही हैं।’’
‘‘तो चमोली में कुछ नहीं है क्या?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘है। बाजार है। जिला जेल है और… अलकनन्दा का पावन किनारा है।’’
‘‘दीदी!’’ निक्की
अचानक एक बार पुन: चहका।
‘‘क्या!!’’ मणिका
ने टैक्सी की विंडो से बाहर झाँकते हुए पूछा।
‘‘उधर देख, ऊपर।
कितने छोटे–छोटे घर!’’
‘‘ओह दादाजी, कितने
छोटे–छोटे घर, देखिए।’’ एक पहाड़ी पर ऊपर की ओर उँगली से दशारा
करती हुई मणिका भी चहकी।
‘‘इसका मतलब है कि इस समय हम चमोली के निकट ही हैं।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘आपने कैसे जाना?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘आप लोग जिन्हें छोटे–छोटे मकान कह रहे हैं वह चमोली से गोपेश्वर की ओर जाते हुए
रास्ते की एक पहाड़ी पर बसा गाँव है—नेग्वाड़।’’
दादाजी बोले,‘‘अपनी जवानी के दिनों में, तुम्हारे डैडी जब तुमसे भी कम उम्र के
और बुआजी मणिका जितनी थीं, तब
हम लोग उस नेग्वाड़ में ही किराए का एक मकान लेकर रहते थे।’’
‘‘अच्छा! और चाचाजी कितने बड़े थे?’’
‘‘चाचाजी तब तक पैदा नहीं हुए थे। मकान की बालकनी में बैठकर हम
लोग महिमामयी इस अलकनन्दा से पैदा होकर आसमान की ओर उठते बादलों को देखने का आनन्द
लूटा करते थे।’’ दादाजी
अतीत को याद कर उठे,‘‘दू…ऽ…र
पहाड़ों के पीछे से त्रिशूल की बर्फीली शिखा दिखाई देती थी। कभी लाल, कभी पीली तो कभी हंस के परों–सी सफेद। जिस तरह इस जगह से उन छोटे
मकानों को देखकर तुम खुश हो रहे हो, उसी तरह उस बालकनी में बैठकर इस सड़क पर दौड़ने वाली बसें और
कारें हमको खिलौनों–सी
दिखाई देती थीं। संसारभर में कुछ गिने–चुने भाग्यशालियों को ही यह सब देखने का सुख मिलता है बेटे।’’
बच्चे विस्मयपूर्वक एक बार फिर जादूनगरी–जैसे उस गाँव और उसके उन प्यारे–प्यारे मकानों को देखने लगे।
दादाजी ने टैक्सी को चमोली में भी कुछ देर के लिए रुकवाया।
उसके बाद वे आगे बढ़े।
‘‘सही माने में तो हमारी बदरीनाथ यात्रा अब शुरू होती है।’’
टैक्सी के चमोली से चलते ही दादाजी ने
कहा,‘‘अब सबसे पहले हम
पीपलकोटी पहुँचेंगे।’’
दादाजी की इस बात पर बच्चों ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस समय वे
जैसे किसी स्वप्नलोक की सैर कर रहे थे। अभी, कुछ देर पहले उन्होंने वह परीलोक देखा
था, जहाँ उनके पूज्य दादा–दादी और डैडी के सुनहरे दिन गुजरे थे।
काश, उनके पास समय होता और
वे नेग्वाड़ के उसी मकान की उसी बालकनी में कुछ दिन बिता पाते । नीचे फैले पड़े
चमोली के कैनवास पर बहती अलकनन्दा के निर्मल जल से उठते बादलों को चारों ओर दूर–दूर तक सिर उठाए खड़े पर्वतों को और उनके
पीछे बर्फ का ताज सिर पर बाँधे खड़े त्रिशूल को देख पाते। देख पाते कि सूर्य की गति
के साथ–साथ उसका हिम–मुकुट किस तरह हर पल रंग बदलकर अपनी छटा
बिखेरता है।
टैक्सी से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों और दादाजी के अतीत की
कल्पनाओं ने मणिका और निक्की के मन में एक अनोखा ही चित्र खींच दिया। टैक्सी दौड़ती
रही और बच्चे चुपचाप बैठे बाहर की दुनिया को देखते रहे। पीपलकोटी, गरुड़गंगा सब पीछे छूट गए और टैक्सी
जोशीमठ पहुँच गई।
‘‘जोशीमठ वह जगह है बेटे, जहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे आदि–शंकराचार्य को दिव्य–ज्योति के दर्शन हुए थे। इसी कारण
उन्होंने इस स्थान को ‘ज्योतिर्मठ’
नाम दिया जो बिगड़कर अब जोशीमठ हो गया
है।’’ दादाजी काफी देर बाद
पुन% बोले तो बच्चे जैसे तन्द्रा से जाग उठे।
‘‘यह तो बेहद खूबसूरत नगर है दादाजी।’’ मणिका बोली।
‘‘यह सच है बेटे । जोशीमठ को गढ़वाल का हर दृष्टि से सुन्दर नगर–क्षेत्र माना जा सकता है। इससे कुछ ही
दूर ‘औली’ नाम का बुग्याल है।’’ दादाजी ने बताया।
‘‘बुग्याल क्या होता है?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘बुग्याल…सही बात तो यह है कि बुग्याल का अर्थ बताने वाला कोई
एक शब्द हिन्दी में नहीं है।’’ दादाजी
बताने लगे,‘‘शब्दकोश
में देखोगे तो बुग्याल का अर्थ चरागाह लिखा मिलेगा। परन्तु चरागाह इसके अर्थ को
पूरी गहराई के साथ ध्वनित नहीं कर पाता है। फिर भी, तुम लोग इसे इस तरह समझ सकते हो कि
विशेष प्रकार की अपेक्षाकृत मोटी पत्तियोंवाली घास के मैदान सर्दी के मौसम में
बर्फ की मोटी तह से ढँक जाते हैं। महीनों बर्फ में दबी रहने के कारण वह घास बेहद
मुलायम और घनी गद्देदार हो जाती है। इतनी गद्देदार कि बहुत ऊपर से भी इस पर कूदो
तो चोट न लगे। गर्मी के मौसम में बर्फ की परत पिघलकर बह जाती है और घास की मोटी तह
वाला बुग्याल उभर आता है। औली–जैसे
बड़े बुग्याल बहुत–कम
पहाड़ों पर मिलते हैं। यहाँ पिछले कई सालों से सर्दी के मौसम में स्कीइंग आदि के
प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं। जिसमें कई देशों के प्रशिक्षार्थी भाग लेते हैं।’’
‘‘तब तो जोशीमठ को एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन–स्थल माना जाना चाहिए दादाजी।’’ मणिका बोली।
‘‘इतनी ही बात नहीं है।’’ दादाजी ने बताया,‘‘जोशीमठ धार्मिक दृष्टि से भी अच्छा और
महत्वपूर्ण नगर है। नरसिंह भगवान का यहाँ पर बेहद प्राचीन मन्दिर है। सर्दी के
मौसम में जब बदरीनाथ का सारा क्षेत्र बर्फ से ढँक जाता है, मन्दिर के कपाट भी बन्द कर दिए जाते है,
तब यहाँ, जोशीमठ में ही, भगवान बदरी विशाल की आरती उतारी जाती
है। उस दौरान बदरीनाथ कमेटी के सारे पदाधिकारी भी यहीं रहते हैं।’’
जोशीमठ के बाद बदरीनाथ तक का रास्ता या तो निरा ढलान है या
निरा उठान, बीच–बीच में बस्तियाँ और खेत हैं। लेकिन
पीछे देखे जा चुके पहाड़ों के मुकाबले कम और दूर–दूर। इसलिए प्रकृति की सुरम्यता और
रमणीयता का आनन्द विशेष रूप से अब ही आना प्रारम्भ होता है। बच्चे इस सारे आनन्द
से अभिभूत थे। इससे पहले हालाँकि वे महामाता वैष्णोदेवी के दर्शनों के लिए जम्मू
से कटरा तक पहाड़ों के बीच से गुजर चुके थे लेकिन उस यात्रा से कहीं अधिक आनन्द और
रोमांच का अनुभव वे इस यात्रा में कर रहे थे।
‘‘यह विष्णुप्रयाग है।’’ काफी देर बाद बस जब एक छोटे पुल पर से गुजरने लगी तो दादाजी ने
बताया,‘‘नारद जी ने यहाँ पर
भी भगवान विष्णु की आराधना की थी। यह धौली गंगा और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’
बस इस समय किसी सँकरी गली–जैसे रास्ते से गुजर रही थी। दोनों तरफ
बेहद ऊँची पहाड़ियाँ और बीच में एक गहरी दरार के तल पर जूँ की तरह रेंगती हुई बसें
और कारें। एकदम ऐसा रास्ता, जैसे
किसी ऊँचे केक के बीच से एक पतली फाँक पूरी गहराई तक काटकर अलग निकाल दी गई हो।
विष्णुप्रयाग के बाद टैक्सी गोविन्दघाट पहुँचकर रुकी। पहले से ही वहाँ खड़ी कुछेक
बसों और अन्य यात्री वाहनों से उतरे सभी श्रद्धालु यात्रियों के साथ–साथ दादाजी, ममता, सुधाकर, मणिका और निक्की ने भी यहाँ स्थित एक
सुन्दर राम मन्दिर में मत्था टेका।
आगामी अंक में जारी…
1 टिप्पणी:
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