बुधवार, जनवरी 21, 2009

अलाव के इर्द-गिर्द/बलराम अग्रवाल



खनों तक खेत में धँसे मिसरी ने सीधे खड़े होकर पानी से भरे अपने पूरे खेत पर निगाह डाली। नलकूप की नाली में बहते पानी में उसने हाथ-पाँव और फावड़े को धोया और श्यामा के बाद अपना खेत सींचने के इन्तजार में अलाव ताप रहे बदरू के पास जा बैठा।
बोल भाई मिसरी, के रह्या थारे मामले में? बदरू ने पूछा।
सब ससुर धोखा। अलाव के पास ही रखी बीड़ियों में से एक को सुलगाकर खेत भर जाने के प्रति कश-ब-कश आश्वस्त होता मिसरी बोला,ई ससुर सुराज तो फिस्स हुई गया रे बदरू।
कउन सुराज…इस स्यामा का छोरा?
स्यामा का नहीं, गाँधी का छोरा…पिर्जातन्त!
मैंने तो पहले ही कह दिया था थारे को। ई कोर्ट-कचहरी का न्याय तो भैया पैसे वालों के हाथों में जा पहुँचा। सब बेकार।
गलती हुई रे बदरू। थारी जमीन हारने के बाद मैं कित्ता रोया था उसमें बैठकर।… और यही बात मैंने कही थी उस बखत, कि एका नहीं होगा तो थोड़ा-थोड़ा करके हर किसान का खेत चबा जाएगा चौधरी। अलाव की आग को पतली-सी एक डण्डी से कुरेदते हुए बदरू बोला,और आज ही बताए देता हूँ, थारे से निबटते ही इस स्यामा की जमीन पर गड़ेंगे उसके दाँत!
बदरू की बात के साथ ही मिसरी की नजरें खेत सींचने में मस्त श्यामा पर जा पड़ीं। बित्ता-बित्ता भर जमीन अपनी होने के अहसास ने उन्हें आजाद-हैसियत का गर्व दे रखा है। इस गर्व को कायम रखने की ललक ने मिसरी के अन्दर से भय की सिहरन को बाहर निकाल फेंका।
मुझे दे! चिंगारी कुरेद रहे बदरू के हाथ से डण्डी को लेकर मिसरी ने जगह बनाई और फेफड़ों में पूरी हवा भरकर चार-छ: लम्बी फूँक अलाव की जड़ में झोंकीं। झरी हुई राख के सैंकड़ों चिन्दे हवा में उड़े और दूर जा गिरे। अलाव ने आग पकड़ ली।
कुहासे-भरी उस सर्द रात के तीसरे पहर लपटों के तीव्र प्रकाश में बदरू ने श्यामवर्ण मिसरी के ताँबई पड़ गए चेहरे को देखा और इर्द-गिर्द बिखरी पड़ी डंडियों-तीलियों को बीन-बीन कर अलाव में झोंकने लगा।

3 टिप्‍पणियां:

अभिषेक मिश्र ने कहा…

संछिप्त और अच्छी रचना. स्वागत.

(gandhivicha.blogspot.com)

Ashk ने कहा…

katha yatra ke liye shubhkamnayein.
-ASHOK LAV
HTTP;//ashoklavmohayal.blogspot.com

बलराम अग्रवाल ने कहा…

भाई अभिषेक जी व अशोक लव जी, आपके द्वारा हौसला बढ़ाने का शुक्रिया।