रविवार, जुलाई 25, 2010

प्रतिपक्ष / बलराम अग्रवाल

-->दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखासामने बैठे नौजवान पर नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन… बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होताअपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त! मैं उससे बोला।
गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोशकोई भी आम-वजह समझ लो। वह लापरवाह अंदाज में बोला, तुम सुनाओ।
मैं! मैं हिचका। इस बीच दो नीट गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
है कुछ बताने का मूड? वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की कैपिसिटी थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
मैं… एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…। सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया, लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है… हम तीन भाई हैं… तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले… माँ कई साल पहले गुजर गई थी… और बाप बुढ़ापे और… कमजोरी की वजह से… खाट में पड़ा है… कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को… उसने… पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन… तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का… अपनी मर्जी के मुताबिक… इस्तेमाल नहीं कर सकता… ।
क्यों? मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
बुड्ढा सोचता है कि… हम… तीनों-के-तीनों भाई… बेवकूफ और अय्याश हैं… शराब और जुए में… जाया कर देंगे जायदाद को… । मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला, पैसा कमाना… बचाना… और बढ़ाना… पुरखे भी यही करते रहे… न खुद खाया… न बच्चों को खाने-पहनने दिया… बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले… लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को… लेकिन मैं… मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ… 
तू…ऽ…  मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा, बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
कैसे हो? आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
ये पट्टियाँ…? दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
इसीलिए पीने से रोकती हूँ। वह बोली, ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा… रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता… पता है?
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…। मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।

3 टिप्‍पणियां:

प्रदीप कांत ने कहा…

विचारणीय लघुकथा

उमेश महादोषी ने कहा…

भाई साहब, यह लघुकथा एक अन्य ब्लॉग पर शायद मैंने कल ही पढ़ी थी, आपकी ही दो अन्य लघुकथाओं के साथ। इस लघुकथा ने प्रभावित तो काफी किया, पर वह प्रभाव है क्या; मैं स्वयंम ठीक से नहीं समझ पा रहा हूँ। एक तरफ मुझे लगता है नशा व्यक्ति को किस स्थिति में पहुंचा देता है, यही सन्देश है इस रचना का। कभी लगता है व्यक्ति के कुंठा जनित आक्रोश को फोकस करना उद्देश्य है इस रचना का। थोड़ी देर को यह भी लगता है कि कुछ कंजूस किस्म के मां-बाप (बल्कि सिर्फ बाप कहना ज्यादा सही होगा), अपनी कंजूसी और संकुचित सोच से बच्चों को किस रास्ते पर ला पटकते हैं ; इसे दर्शाना चाहा है आपने। एक समझदार पत्नी को एक मनोवैज्ञानिक समझ वाली नर्स की तरह अपने कुंठाओं और नसे के जाल में फंस चुके पति का उपचार करते हुए भी देखता हूँ। एक पाठक के तौर पर इन सबको एक साथ भी देख पा रहा हूँ रचना में। लेकिन आपके लेखन की उद्देश्यपरकता का जो नशा मेरे मस्तिष्क पर छाया हुआ है, वह शायद मुझे कुछ और दिखाना चाहता है; पर क्या ,नहीं पता। हो सकता है आपको (और पाठकों को भी) मेरी बात मूर्खतापूर्ण लगे। परन्तु यह खतरा लेकर भी मैं चाहता हूँ कि आप मेरा मार्गदर्शन करें कि यह रचना इतनी ही है, जितनी मैं समझ रहा हूँ; या इससे कुछ आगे। चूँकि रचना मुझे बेहद अच्छी लगी, इसलिए रचनाकार के मंतव्य की थाह लेने की बेचेनी को रोक नहीं पा रहा हूँ अपने अन्दर ...........क्षमा चाहता हूँ इसके लिए।

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

Bhai Balram,

Tumane Laghukatha Vidha mein bujurgon ki duniya par bahuta shodhpurna kaarya dala hai. Laghukatha aalochana mein is karya ka alag hi mahatva hoga.

Chandel