सोमवार, अक्तूबर 21, 2013

देवों की घाटी / बलराम अग्रवाल



 'कथायात्रा' में 29 जनवरी,2013 से अपने यात्रापरक बाल एवं किशोर उपन्यास 'देवों की घाटी' को प्रस्तुत करना शुरू किया था। प्रस्तुत है उक्त उपन्यास की बारहवीं कड़ी
गतांक से आगे
                                      चित्र:बलराम अग्रवाल
                                                                         (बारहवीं कड़ी)
‘‘स्वामी विशुद्धानन्द हमेशा काला कम्बल ओढ़े रहते थे, इसलिए लोग उन्हें काली कमली वाले बाबा कहने लगे थे।’’ दादाजी ने बताया।
बातें करते हुए वे भीतर तक जा पहुँचे। एकदम साफसुथरा था यात्रीनिवास। इस बीच सुधाकर ने मैनेजर से बातें करके दो कमरे बुक कर लिये थे। सोचाएक में ममता और बच्चे रह लेंगे और दूसरे में वह और दादाजी। लेकिन दादाजी ने सुधाकर से कहा,‘‘नहीं, खुद को और तुम्हें एक कमरे में, और ममता और बच्चों को दूसरे कमरे में रखने का मतलब होगा कि ताकतवरों को एक कमरे में और कमजोरों को दूसरे कमरे में रख दिया। यह गलत है। औरतों और बच्चों को कभी भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसा करो, एक कमरे में तुम और ममता रुको और दूसरे कमरे में मैं और बच्चे रहेंगे।’’
अल्ताफ ने अपना बसेरा गाड़ी में बना लेने की बात पहले ही उनसे कह दी थी।

दादाजी के कहे अनुसार, ममता और सुधाकर अपने कमरे में जा चुके थे। बच्चों के साथ अपने कमरे की ओर बढ़ते दादाजी बोले,‘‘देखो भाई, सुबह का समय है और रातभर बैठे रहने के कारण हम सब थके हुए भी हैं। इसलिए सबसे पहला काम है अपनेआप को नहाधोकर तरोताज़ा करना। उसके बाद अपुन तो हल्काफुल्का खाना खाकर कुछ देर के लिए सोएँगे।’’
‘‘और कहानी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘कहानी तरोताज़ा होने के बाद।’’
‘‘ठीक है।’’ मणिका बोली।
कमरे को अन्दर से बन्द करके दादाजी ने अटैची से अपने और बच्चों के पहनने के कपड़े निकालकर पलंग पर डाले और अपने कपड़े लेकर बाथरूम में घुस गए। उनके नहा आने के बाद निक्की नहाने को गया और अन्त में, मणिका । दादाजी इस बीच आँखें मूदँकर जाप करने को बैठ गए थे।
जैसे ही मणिका नहाकर बाथरूम से बाहर निकली, दादाजी के मोबाइल पर हनुमान चालीसा का पाठ सुनाई देने लगा। निक्की ने उठाकर देखा, सुधाकर की ओर से कॉल थी। कॉल बटन को पुश करके उसने मोबाइल को कान से लगाया और बोला,‘‘हलो डैड!’’
‘‘हलो बेटे!’’ सुधाकर ने पूछा,‘‘क्या कर रहे हो?’’
‘‘नहाकर बैठे हैं।’’
‘‘सब नहा लिए?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘दादाजी क्या कर रहे हैं?’’
‘‘पूजा।’’
‘‘ठीक है।’’ उधर से आवाज़ आई,‘‘मैंने चाय ऑर्डर कर दी है। वह लाता ही होगा। हम लोग भी तैयार होकर तुम्हारे कमरे में ही आ रहे हैं। साथ चाय पियेंगे। दादाजी से कह देना।’’
‘‘ओ॰ के॰ डैड।’’ निक्की ने कहा और कॉल काट दी।
जैसे ही दादाजी ने पूजा समाप्त की, निक्की ने सुधाकर का संदेश उन्हें सुना दिया। कुछ ही देर में मणिका भी नहाकर बाथरूम से बाहर निकल आई। तभी कमरे की घंटी बजी। निक्की ने दरवाजा खोलामम्मीडैडी थे। वे अन्दर आकर कुर्सियों पर बैठ गए और चाय आने का इंतजार करने लगे। जब काफी देर तक चायवाला नहीं आया तो सुधाकर खुद उठकर बाहर गए और काउंटर पर बैठे एक कर्मचारी से कुछ कहा।
‘‘आप अपने कमरे में चलिए सर, मैं अभी भिजवाता हूँ।’’ वह उनसे बोला।
सुधाकर वापस आ गए। उनके पीछेपीछे ही लम्बे कद का एक युवक चाय की केतली, कप्स और प्लेटें ट्रे में रखकर चला आया। बोला,‘‘शॉरी शरजी। आज रश कुछ ज्यादा है। लाने में देर हो गई।’’
‘‘कोई बात नहीं।’’ सुधाकर ने कहा।
‘‘कुछ और लाऊँ शरजी ?’’ उसने पूछा।
‘‘नहीं।’’ सुधाकर बोले,‘‘जाते समय दरवाजा बन्द कर देना।’’
‘‘जी शरजी।’’ उसने कहा और बाहर निकलकर दरवाजा बन्द कर गया।
सुधाकर ने कपों में चाय उँड़ेलनी शुरू की। ममता ने बैग खोलकर घर से लाया हुआ नाश्ता प्लेटों में लगाया।
सबने चायपान शुरू किया।
‘‘अभी तुम लोग थक गए होगे, आराम करो। दिन तो अभी सारा ही बाकी है। दोतीन बजे तक आराम करके उठने के बाद हम श्रीनगर में घूमेंगे।’’ चायपान के बाद दादाजी ममता व सुधाकर से बोले।
‘‘जी बाबूजी।’’ ममता ने कहा और बच्चों से बोली,‘‘भाईबहन दोनों आराम करना, तंग मत करना दादाजी को।’’
‘‘अब आप भी तो हमें तंग मत करो मम्मी, जाओ प्लीज़।’’ मणिका ने ममता से कहा।
‘‘दिस इज़ नॉट योर बिजनेस यार।’’ सुधाकर ममता से बोले,‘‘बाबूजी खुद इन्हें देख लेंगे।’’
‘‘यह घर नहीं है जी कि बच्चे बाबूजी को परेशान करें और हम यह सोच लें कि ये जानें। बाहर का मामला है, यहाँ तो हमें ही इनकी खबर लेनी पड़ेगी।’’ ममता ने सख्ती से कहा।
सुधाकर इस पर कुछ न बोल सके और चुपचाप कमरे से निकलकर बाहर जा खड़े हुए। बच्चों को समझाकर ममता भी चली गई।
‘‘समझ गए दोनों?’’ उसके जाते ही दादाजी ने चुटकी ली।
‘‘समझ गए।’’ मणिका मुँह बनाकर बोली,‘‘नॉट अ फ्रेंडली वन, शी इज़ अ प्रीचिंग मॉम।’’
‘‘और आपका क्या विचार है अपनी मम्मी के बारे में?’’ दादाजी ने निक्की से पूछा।
‘‘सेम।’’ वह बोला।
‘‘दिल से बोल रहे हो या दीदी का बचाव कर रहे हो?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘दोनों।’’ उसने कहा।
‘‘अब आप भी ज़्यादा स्मार्ट न बनो दादाजी।’’ मणिका दादाजी से बोली,‘‘मम्मी ने आपको परेशान न करने की हिदायत दी है, बस। कमरे में लेटेलेटे भी तो आप हमें काफीकुछ बता सकते हैं न!’’
‘‘सो तो मैं जानता हूँ…’’ हँसते हुए दादाजी बोले,‘‘कि तुम लोग मुझे आराम नहीं करने दोगे। ठीक है, उधर वाले बिस्तर पर लेटो। मैं इस पलंग पर पड़ापड़ा तुम्हें कुछकुछ बताता हूँ।’’
यह सुनते ही कमरे में पड़े दो बिस्तरों में से एक पर दोनों बच्चे जा लेटे और दूसरे पर दादाजी।
‘‘किसी जमाने में श्रीनगर गढ़वाल की राजधानी हुआ करता था।’’ दादाजी ने बताना शुरू किया।
‘‘किस जमाने में?’’
‘‘सन् 1358 में, राजा अजयपाल के जमाने में। उसने देवलगढ़, जो यहाँ से कुछ ही दूरी पर है, को छोड़कर श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया था।’’ दादाजी ने बताया,‘‘उसके बाद सन् 1803 यानी करीब साढ़े चार सौ साल तक यह श्रीनगर ही गढ़वाल की राजधानी रहा।’’
‘‘अच्छा दादाजी, इस नगर का नाम श्रीनगर किस तरह पड़ा?’’ मणिका ने पूछा।
                                                              आगामी अंक में जारी

1 टिप्पणी:

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma ने कहा…

आपकी इस उम्दा रचना को http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/ के शुक्रवारीय अंक " निविया की पसंद में शामिल किया गया हैं कृपया अवलोकन हेतु पधारे
धन्यवाद