दिनांक 02-01-2024 को दैनिक निरन्तर, ब्यावर राज में लघुकथा 'गुरुमन्त्र'।
विवाह के बाद उसे पता चला कि जिसकी वह ब्यहता बनी है, वह दरअसल इन्सान नहीं है। थक-हारकर उसने अपनी माँ को यह बात बतायी। माँ ने कहा-“ससुराल में ज्यादातर लड़कियों का वास्ता भेड़ों और भेड़ियों से ही पड़ता है शुरू-शुरू में; लेकिन बाद में वे सध जाते हैं।”
“न माँ कुछ समझने को तैयार है मम्मी, न बेटा।” लड़की ने कहा, “बहला-फुसलाकर भी इनमें भेद नहीं किया जा सकता।”
“भेद करने की नहीं, साधने की बात कह रही हूँ वन्दना।” माँ ने कहा।
“बन्दा अपने कमरे में बाद में घुसता है, पहले माँ के कमरे में जाता है मन्त्र लेने।” वन्दना ने अपनी बात जारी रखी।
“तुझे इसमें क्या ऐतराज है?”
“ऐतराज यह है कि वहाँ से निकलते ही चीखेंगे-‘दोपहर में माताजी को समय पर दवाई क्यों नहीं दी? खाने के बाद खुद-ब-खुद बरतन उठाने क्यों नहीं गयी, माताजी को आवाज क्यों लगानी पड़ती है हर बार?’ वगैरा-वगैरा।”
“खाना रखकर तू वहीं बैठ जाया कर। आवाज लगाने का झंझट ही खत्म।”
“वह भी किया एक बार। मेरे बैठते ही भड़क गयीं। कहा—‘सिर पर ही बैठ गयी! खाना तो चैन से खा लेने दे!’ तब से बैठना बंद कर दिया। ऑफिस से आने के बाद अगर मुझे डाँटने की आवाज सासु-माँ के कानों तक नहीं पहुँची तो खुद कमरे में आ धमकती हैं। फिर, आँखों ही आँखों में पता नहीं क्या दबाव बनाती हैं कि ये मुझ पर भड़कना शुरू हो जाते हैं।”
“ओह! इसका एक ही इलाज है बेटा—लव मी लव माय डॉग!”
“मतलब?”
“भेड़ की माँ को साध! वह सध गयी तो भेड़िया बना भेड़ा, पिल्ला बन तेरे पीछे कूँ-कूँ करता घूमेगा और पीछे-पीछे उसकी माँ भी।” 21-12-23/23:50
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