शुक्रवार, जनवरी 05, 2024

बावरा / बलराम अग्रवाल

'दैनिक निरन्तर' ब्यावर (राज.) में 9-12-23 को  प्रकाशित लघुकथा 'बावरा' :

“गेहूँ के खेत देखे हैं?”

“लो सुनो, हम तो बड़े ही गेहुँओं में हुए हैं!”

“खुशबू जानी है उनकी?”

“खुशबू! बासमती थोड़े न है; गेहूँ में क्या खुशबू आएगी!!”

“आती है, उसकी मिट्टी तक से आती है; एकदम मस्त!”

“कच्ची फसल में आती होगी!”

“पकी में और भी मस्त आती है!”

“कैसी बातें करते हो!”

“पकी फसल तो पायल बजाती है खेत-भर में!”

“फसल कैसे पायल बजा सकती है? कोई चाण्डालिनी, पिशाचिनी देख ली होगी।”

“घूमती है, पायल बजाती…गाती हुई घूमती है!”

“घूमती-गाती भी है! पक्का चुड़ैल देख ली तुमने।” 

“चुड़ैल नहीं, फसल।”

“फसल!…फसल कैसे फसल में घूमेगी। बावरा समझे हो क्या?”

“……”

“नहीं हैं, बावरे नहीं हैं हम। कोशिश भी मत करो!”

“बावरे होते तो फसल की गंध सुँघाई देती, झंकार सुनाई देती और वह नाचती-गाती भी दिखाई देती! सॉरी यार, तुम बावरे नहीं हो।”

“हमें तो तुम ही बावरे लग रहे हो भैया! हमें जाने दो।”

सम्पर्क : बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेज़ीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 (उप्र) 

मोबाइल : 8826499115

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