शुक्रवार, जनवरी 05, 2024

मिलना एक योद्धा से / बलराम अग्रवाल

दैनिक 'निरन्तर', ब्यावर (राज.) के 23-12-23 अंक में प्रकाशित लघुकथा *मिलना एक योद्धा से*

राजधानी एक्सप्रेस में सवार थे दोनों। परस्पर अजनबी। 

2 टीयर कोच था और सवारियाँ भी इनी-गिनी। 

कम्पार्टमेंट के अपने हिस्से में वे ही दोनों थे। आमने सामने की सीट। ट्रेन चले काफी समय बीत गया था। सिर्फ दो के बीच अबोला लम्बे समय तक कायम नहीं रह सका। एक ने पहल की—

“माफ कीजिए, क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ?”

“जी, क्यों नहीं!” युवक ने कहा, “मैं शेखर आर्य! आप?”

“मैं शिखा, शिखा वार्ष्णेय! हैप्पी टु मीट यू।” 

“मुझे भी बहुत खुशी हुई आपसे मिलकर!” शेखर ने कहा; फिर पूछा, “किसी जॉब में हैं आप?”

“जी, मैं असिस्टेंट प्रोफेसर हूँ! आप?”

“इत्तिफाक से मैं भी!” शेखर हँसा।

“विषय?”

“हिन्दी! आपका?”

“हिस्ट्री! ब्लडी बंडल ऑव ऑल फेक इन्फॉर्मेशन्स।” 

“क्यों?”

“इसलिए कि गणित में, कैमिस्ट्री में, फिजिक्स में एक फार्मूला है जिसके बारे में तय है कि कभी नहीं बदलना! हिन्दी में, अंग्रेजी में घात-प्रतिघात नहीं है…”

“घात-प्रतिघात नहीं है, मतलब?” शेखर ने टोका।

“देखिए, गणित में, कैमिस्ट्री में, फिजिक्स में कुछ डिजिट्स के ऊपर कुछ पावर्स होती हैं, हिन्दी में उन्हें घात कहते हैं! वैसे घात का असली मतलब आप हिन्दी वाले अच्छी तरह जानते ही हैं। अब प्रतिघात, यानी कोई मारा-मारी नहीं है। कबीर, रहीम, तुलसी, नागार्जुन, ज्ञानरंजन, राजेश जोशी, स्वप्निल श्रीवास्तव…सबकी व्याख्याएँ निर्धारित हैं, जीवनियाँ निर्धारित हैं। यानी जैसे वे कल थे, वैसे ही आज हैं, वैसे ही कल रहेंगे। जो कुछ भी इनके बारे में लिखा है, अपरिवर्तनीय है।”

“हिस्ट्री में परिवर्तनीय है?” शेखर ने पूछा।

“बिल्कुल!”

“कैसे?”

“जो इतिहास हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं, हमें पता है कि वह झूठ का पुलिन्दा है!” शिखा ने कहा, “सही इतिहास दरअसल, पाठ्यपुस्तकों से बाहर अन्य किताबों में है, जो विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए उपलब्ध ही नहीं है!”

“आपको तो उपलब्ध है! आप बताइए उन्हें।” शेखर ने उत्तेजित स्वर में कहा।

“मेरे बताने से क्या होगा? परीक्षा में प्रश्न तो पाठ्यपुस्तक से आने हैं और उत्तर भी उसी के अनुरूप दिये जाने जरूरी हैं!”

“तब?”

“पाठ्यपुस्तकों में सुधार किया जाए, और क्या!”

“प्रामाणिकता का आधार क्या रहेगा?”

“वही, जो फेक इन्फॉर्मेशन्स वाली अब की पाठ्यपुस्तकों का रहा था! पाठ-निर्धारण समिति, और क्या!”

“बात तो आपकी ठीक है!” शेखर बोला, “ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चों को गलत इतिहास पढ़ाए जाने के खिलाफ आप सुप्रीम कोर्ट में आवाज उठाएँ ! वही यह निर्धारित करे-कराए कि इतिहास गलत पढ़ाया जा रहा है या नहीं!”

“वहाँ से तो निर्णय आने तक ही कई सेशन निकल जाएँगे!” शिखा ने क्षुब्ध स्वर में कहा, “वैसे तैयारी चल रही है उसकी भी!”

“शिक्षा का मामला है न शिखा जी! जबरदस्ती नहीं की जा सकती।”

“गलत पढ़ाना भी तो जबरदस्ती है! गलत पढ़ाते समय सही जानकारी वाले की आत्मा पर कितना बोझ पड़ता है, जानते हैं?”

“जानता तो नहीं हूँ लेकिन महसूस कर सकता हूँ!” शिखर बोला।

“मैंने इस बारे में सरकार को पत्र लिखे हैं, प्रमाण भी दिये हैं! देखिए क्या होता है।” शिखा ने कहा।

“यानी कि आप हर रास्ते से वार कर रही हैं!” शिखर ने ठहाका लगाया।

“बेशक!” शिखा भी बेझिझक हँसी, फिर गम्भीर स्वर में बोली, “हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि अपने बच्चों को हम अपने जातीय गौरव की सही जानकारी दें! यह मेरे बच्चों का हक है और इसे मैं दिलाकर रहूँगी।”

“वॉव! इस समय मैं इतिहास की लक्ष्मीबाई के सामने बैठा हूँ! ” रोमांचित अंदाज में शिखर बोला, “बुरा न मानें शिखा जी, तो एक सेल्फी हो जाए! मैं इस लम्हे को सहेजकर रख लेना चाहता हूँ।”

“क्यों नहीं!” शिखा ने हथेली से ही अपने बाल ठीक किए और सम्हलकर बैठ गयी। शेखर ने मोबाइल निकाला। उसकी ओर जाकर दो-तीन सेल्फी लीं और अपनी सीट पर आ बैठा।

बातों का नया सिलसिला शुरू हो गया। --000--

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