जैसे ही कार उसके नजदीक से गुजरती, भौंकते हुए वह आदतन-सा उसके साथ दौड़ पड़ता।
आखिरकार, एक दिन मैंने कार साइड में रोकी और दरवाजा खोलकर नीचे उतर आया। पूछा, “जाते-आते क्यों भौंकते हो हर बार?”
“तुम पर नहीं, कार पर भौंकता हूँ।” वह बोला।
“क्यों?”
“हम पूँजी के खिलाफ हैं।”
“लेकिन, मैं तो ड्राइवर हूँ, सर्वहारा श्रेणी का आदमी!”
“होगे; कार पूँजी का प्रतीक है और इसमें बैठे आदमी को सर्वहारा नहीं माना जा सकता!”
“अभी कुछ दिन पहले तुम एक बाइक-सवार पर भी भौंकते नजर आए थे?”
“हमारी नजर में स्कूटी-बाइक भी पूँजी ही हैं!”
“उससे पहले एक साइकिल वाले को भी खूब दौड़ाया था तुमने!”
“मुझ जैसे ग्रासरूट लेवल के शख्स को जो चीजें मुहैया नहीं हैं, वे सब पूँजी की श्रेणी में आती हैं!”
“बकवास मत करो। एक दिन, जब मैं पैदल यहाँ से गुजर रहा था, तुम एकाएक मुझ पर ही झपट पड़े थे, याद है?”
“खूब याद है!”
“उसके बारे में क्या सफाई है?”
“देख रहे हो कि जब से पैदा हुआ हूँ, नंगा घूम रहा हूँ! लिबास वालों पर हमला मेरा मौलिक अधिकार बनता है कि नहीं?”
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