मंगलवार, जून 17, 2025

दो भक्तों की कथा / बलराम अग्रवाल

"सर, आज की परिस्थिति में 'भक्त' और 'अंधभक्त' में क्या अन्तर है?"

"जो लोग एक खास खेमे का राग अलापते हैं, वे भक्त हैं और अपने खेमे से बाहर वाले समस्त रागियों को वे अंधभक्त कहते हैं। बहरहाल, अंधे पहले वाले भी हैं।"

"समझ में नहीं आया सर!"

"यों समझो कि इलाके में दो कीर्तन मंडलियाँ हैं। अपने-अपने इष्ट की प्रशस्ति गाने वाला एक से बढ़कर एक भक्त उन मंडलियों में है। एक मंडली के इष्ट मार्क्स हैं, माओ हैं, लेनिन हैं, नेहरू हैं, और भी कई-एक हैं। इनकी प्रशस्ति को ये लोग प्रगतिशील चिंतन कहते हैं।"

"और, दूसरी मंडली.. ?"

"दूसरी मंडली वालों के इष्ट तो एक हैं लेकिन देवता तेंतीस करोड़ हैं। इसीलिए इनके सुरों में भिन्नता मिलती है। अतीत-गायन से एक कदम भी आगे बढ़ने, वर्तमान से जुड़ने की कोशिश भर को ये अपमान समझते हैं, और इसीलिए...।"

"इसीलिए क्या?"

"इसीलिए पहली भक्त-मंडली के निशाने पर बने रहते हैं।"

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