शनिवार, जनवरी 24, 2009

बिना नाल का घोड़ा/बलराम अग्रवाल


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उसने देखा कि आफ़िस के लिए तैयार होते-होते वह चारों हाथ-पैरों पर चलने लगा है । तैयार होने के बाद वह घर से बाहर निकला । जैसे ही सड़क पर पहुँचा, घोड़े में तब्दील हो गया । अपने जैसे ही साधारण कद और काठी वाले चमकदार काले घोड़े में । माँ, पिता, पत्नी और बच्चे-सबको उसने अपनी गरदन से लेकर पीठ तक लदा पाया । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, सड़ाक से एक हंटर उसके पुट्ठे पर पड़ा,देर हो चुकी है, दौड़ो...!
वह दौड़ने लगाठकाठक...ठकाठक...ठकाठक...ठकाठक...
तेज़...और तेज़...! ऊपर लदे लोग एक-साथ चिल्लाए।
वह और तेज़ दौड़ासरपट।
कुछ ही देर में उसने पाया कि वह आफिस के सामने पहुँच गया है। खरामा-खरामा पहले वह लिफ़्ट तक पहुँचा, लिफ़्ट से फ़्लोर तक और फ़्लोर से सीट तक। ठीक से वह अभी सीट पर बैठा भी नहीं था कि पहले से सवार घरवालों को पीछे धकेलकर बॉस उसकी गरदन पर आ सवार हुआ।
यह सीट पर बैठकर आराम फरमाने का नहीं, काम से लगने-लिपटने का समय है मूरख ! दौड़... उसके पुट्ठों पर, गरदन पर, कनपटियों पर संटी फटकारते हुए वह चीखा।
उसने तुरंत दौड़ना शुरू कर दियाइस फाइल से उस फाइल तक, उस फाइल से उस फाइल तक....लगातार....लगातार...और दौड़ता रहा तब तक, जब तक कि अपनी सीट पर ढह न गया पूरी तरह पस्त होकर। एकाएक उसकी मेज़ पर रखे फोन की घंटी घनघनाईट्रिंग-ट्रिंग.. ट्रिंग-ट्रिंग...ट्रिंग...!
उसकी आँखें खुल गयीं। हाथ बढ़ाकर उसने सिरहाने रखे अलार्म-पीस को बंद कर दिया और सीधा बैठ गया। पैताने पर, सामने उसने माँ को बैठे पाया।
नमस्ते माँ! आँखें मलते हुए माँ को उसने सुबह की नमस्ते की।
जीते रहो! माँ ने कहा,तुम्हारी कुंडली कल पंडितजी को दिखाई थी। ग्रह-दशा सुधारने के लिए तुम्हें काले घोड़े की नाल से बनी अँगूठी अपने दायें हाथ की अँगुली में पहननी होगी।
माँ की बात पर वह कुछ न बोला, चुप रहा ।
बाज़ार में बहुत लोग नाल बेचते हैं। माँ आगे बोली,लेकिन, उनकी असलियत का कुछ भरोसा नहीं है। बैल-भैंसा किसी के भी पैर की हो सकती हैं।...मैं यह कहने को आई थी कि दो-चार जान-पहचान वालों को बोलकर काला-घोड़ा तलाश करो, ताकि असली नाल मिल सके।
नाल पर अब कौन पैसे खर्च करता है माँ! माँ की बात पर वह कातर-स्वर में बुदबुदाया,हंटरों और चाबुकों के बल पर अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोंके ही घोड़ों को घिसे जा रहे हैं... यह कहते हुए अपने दोनों पैर चादर से निकालकर उसने माँ के आगे फैला दिए,लो देख लो।
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3 टिप्‍पणियां:

Aadarsh Rathore ने कहा…

प्रभु हम तो आपकी लेखन के कायल हो गए...

बलराम अग्रवाल ने कहा…

भाई राठौर जी, आपका स्नेह ही मेरे लेखन की शक्ति है। बहुत-बहुत आभार।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी ये कहानी किसी ने पढ़ने के लिए बोला था और जैसा कहा था वैसा ही पाया । प्रतीकात्मकता का सुंदर संयोजन ।