शनिवार, जनवरी 31, 2009

कोहनी/बलराम अग्रवाल


बच्ची चीजों को ठीक-से अभी समझने लायक बड़ी नहीं हुई थी। बोलने में भी तुतलाहट थी। लेकिन भाभी ने अभी से उस पर मेहनत करना शुरू कर दिया था। वे शायद जता देना चाहती थीं कि न तो वह साधारण माँ हैं और न ही रेखा साधारण बच्ची। अपने इस प्रोजेक्ट पर उन्होंने कितने दिनों तक कितने घंटे रोज़ाना उस मासूम को तपाया, नहीं मालूम। बहरहाल, एक दिन अपने ‘उत्पाद’ को उन्होंने घर आने वालों के आगे उतार दिया।
“सारे बॉडी-पार्ट्स याद हैं हमारी रेखा को।” वह सौरभ से बोलीं।
“अच्छा!”
“अभी देख लीजिए...” कहते हुए भाभी ने बच्ची से कहा,“रेखा, अंकल को हैड बताओ बेटे।”
रेखा ने मासूमियत के साथ मम्मी की ओर देखा।
“हैड...हैड किधर है?” भाभी ने जोर डालकर पूछा।
रेखा ने दोनों नन्हीं हथेलियाँ अपने सिर पर टिका दीं।
“हेअर?”
उसने बालों को मुट्ठी में भर लिया और किलकिलाकर ताली बजा दी।
“नोज़ बताओ बेटे, नोज़।”
बच्ची ने नाक पर अपनी अँगुलियाँ टिका दीं।
“आप भी पूछिए न भैया!” भाभी ने सौरभ से कहा।
“आप ही पूछती रहिए।” सौरभ मुस्कराहट के साथ बोला,“मेरे पूछने पर बता नहीं पायेगी।”
“ऐसा कहकर आप रेखा की एबिलिटी पर शक कर रहे हैं या हमारी?” उसकी बात पर भाभी ने इठलाते हुए सवाल किया।
उनके इस सवाल पर सौरभ पहले जैसा ही मुस्कुराता हुआ अपनी जगह से उठकर रेखा के पास आया और बोला,“कोहनी बताओ बेटा, कोहनी किधर है?”
सौरभ का सवाल सुनकर बच्ची ने अपनी माँ की ओर देखा, जैसेकि इस तरह का कोई शब्द उसकी मेमोरी में ट्रेस हो ही नहीं पा रहा हो।
“क्या भैया...आप भी बस...!” बच्ची की परेशानी को महसूस करके भाभी ने सौरभ को झिड़का, “हिन्दी में क्यों पूछ रहे हैं?” यह कहती हुई वह रेखा की ओर झुकीं। कहा,“अंकल एल्बो पूछ रहे हैं बेटा,एल्बो!”
परेशानहाल बच्ची ने अपनी कोहनी को खुजाना शुरू किया, और भाभी तुरन्त ही उल्लासभरे स्वर में चीखीं,“येस, दैट्स इट माय गुड गर्ल!”

3 टिप्‍पणियां:

शून्य ने कहा…

सर मज़ा आ गया सर.....
क्या कहूं बस... वाह... दिल को छू लिया....
बधाई......
जय हो.....

सुभाष नीरव ने कहा…

जहाँ तक मुझे याद आता है, यह लघुकथा बलराम अग्रवाल ने इन्दौर लघुकथा सम्मेलन में पढ़ी थी। वहाँ सर्वथा नये विषय की दो बेहद सशक्त लघुकथाएं सामने आई थीं। पहली- बलराम अग्रवाल की “एल्बो” और दूसरी अशोक भाटिया की – “दो कपों की कहानी”। इन दोनों लघुकथाओं की खुलकर तारीफ़ हुई थी। नि:संदेह उक्त उल्लिखित दोनों लघुकथाएं अपने-अपने विषयों को लेकर न केवल नवीन हैं बल्कि लघुकथा के मापदण्डों पर पूरी तरह खरी भी उतरती हैं। नि:संदेह "एल्बो" एक श्रेष्ठ लघुकथा है। अंग्रेजियत का भूत हमारे ज़ेहन में इस तरह घर कर गया है कि हम उसे अपने नासमझ, मासूम बच्चों के दिमाग में भी उसे जबरन ठूंसने की कोशिश करते रहते हैं। "एल्बो" लघुकथा अपनी प्रस्तुति में पाठक पर गहरा असर छोड़ने में पूर्णतया सफल है।

प्रदीप कांत ने कहा…

वाह रे आंग्ल भाषा! क्या होगा इस देश का?